Friday, January 19, 2018

भीष्म साहनी का नाटक ‘हानूश’ : सृजनात्मकता का संकट

January 19, 2018 0 Comments
भीष्म साहनी का नाटक ‘हानूश’ : सृजनात्मकता का संकट
                                     
                                         -मंजू कुमारी

hanoosh
‘भीष्म साहनी’ सर्वप्रथम कथाकार, उपन्यासकार और बाद में नाटककार के रूप में प्रतिष्ठित हुए | इन्होंने कुल छ: नाटक लिखे हैं – 1. हानूश (1977), 2. कबिरा खड़ा बाजार में (1981),3. माधवी (1984), 4. मुआवजे (1992), 5. रंग दे बसंती चोला (1998), 6. आलमगीर (1999)| हानूश’ भीष्म साहनी का पहला नाटक है | यह नाटक कलाकार की सृजनात्मकता को केंद्र में रखकर लिखा गया है | ‘हानूश’ नाटक का पात्र हानूश आम आदमी की तरह ताला बनाने वाला (कुफ्लसाज़) साधारण व्यक्ति होता है | उसकी बचपन से ख्वाइश होती है कि वह एक ऐसी घड़ी बनाएगा, जो बिना रुके हमेशा चल सकेगी | जिस कारण वह बदहाली की हालत में होते हुए भी जीतोड़ मेहनत करने के लिए हमेशा तैयार रहता है | ‘हानूश’ नाटक में हम एक कलाकार के जुनून और लगन को देख सकते है | हानूश अपने जीवन की विषम परिस्थितियों से संघर्ष करता हुआ अपनी जवानी के सत्रह-अठ्ठारह वर्ष चेकोस्लोवाकिया की पहली मीनार घड़ी बनाने में लगा दिया| इस प्रकार अंत में जब वह कलाकार अपने सृजन में सफल हुआ और घड़ी नगरपालिका के मीनार पर लगाईं गई तो बादशाह सलामत आकर देश का गौरव बढ़ाने वाले गरीब कलाकार हानूश को सम्मानित और पुरस्कृत किया तो दूसरी ओर उसकी दोनों आँखों निकलने का भी हुक्म दे दिया | जिससे हानूश और घड़ियाँ न बना सके
भीष्म साहनी ने स्वयं लिखा है कि जब वह चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग गए तो उनके मित्र निर्मल वर्मा ने उन्हें हानूश की वह मीनार घड़ी दिखाई| जिसके बारे में वहां तरह-तरह की कहानियां प्रचलित थी | हानूश ऐसे ही यथार्थ और कल्पना के संयोग की उपज है | नाटक की कथा आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि मध्यकाल में थी | ‘हानूश’ नाटक में “लेखक का उद्देश्य घड़ी की विलक्षणता, उसके आविष्कार की लम्बी कहानी बताना भी नहीं है, जैसा कि स्थूल दृष्टि से देखने पर लगेगा | इसके विपरीत नाटक सूक्ष्म-स्तर पर मानवीय स्थिति, मानवीय नियति को प्रस्तुत करता है | ताला बनाने वाले सामान्य मिस्त्री, ‘हानूश’ के माध्यम से एक कलाकार की सृजनेच्छा शक्ति और संकल्प की तीव्रता को पूरी संवेदनशीलता से तीन अंकों में प्रस्तुत किया गया है |”1
पहला अंक– नाटक का प्रथम अंक हानूश, हानूश की पत्नी कात्या और बड़े भाई पादरी के आपसी संवादों से शुरू होता है | आर्थिक संकट से ग्रस्त होने के कारण हानूश के परिवार में काफी तनाव पूर्ण माहौल होता है| आर्थिक तंगी की वजह से कात्या, हानूश पर झल्लाकर कहती है- “जो आदमी अपने परिवार का पेट नहीं पाल सकता, उसकी इज्जत कौन औरत करेगी ?”2 हानूश का यह कहना सही है कि गरीबी और आर्थिक तंगी स्थायी नहीं होती लेकिन यह क्रूर सत्य है जिसे अनदेखा करके भी जीवन जिया नहीं जा सकता | ठीक ही कहा गया है – ‘MONEY IS CURSE OF PROBLEMS, MONEY IS SOLUTION OF PROBLEMS’ अर्थात-धन समस्या की वजह है तो समस्या का निदान भी है|
दूसरे अंक में कलाकार की सृजन-शक्ति और कला-चेतना को उजागर किया गया है और साथ-ही-साथ सत्ता द्वारा अपनी सत्ता-शक्ति को कायम बनाए रखने के लिए एक कलाकार की किस हद तक अवहेलना कर सकता है उसको भी चित्रित किया गया है | नगरपालिका हानूश को घड़ी बनाने के लिए वजीफा देती है, जिस कारण वह उस पर अपना हक़ चाहती है | गिरजेवाले धर्म के नाम पर घड़ी पर अपना हक़ चाहते हैं | यह पर नाटककार ने व्यावसायिक सत्ता और धार्मिक सत्ता द्वारा परस्पर होने वाले आम आदमी के शोषण को उजागर किया है | इसी अंक के दूसरे दृश्य में हानूश के बेटी यान्का और हानूश का सहायक जेकब के बीच पनपते प्रेम सम्बन्ध को भी उभारा गया है | दिन प्रतिदिन घड़ी की सफलता के साथ-साथ हानूश और कात्या (पति-पत्नी) के बीच मधुर संबंधों को भी रेखांकित किया गया है |
तीसरे अंक में कलाकार की आतंरिक पीड़ा को उभारा गया है | हानूश की घड़ी बनाने की प्रतिभा को जानकार राजा बहुत खुश होता है| हानूश को पुरस्कार से नवाजता है और घड़ी की देख-रेख का जिम्मा भी उसे ही सौपता है | लेकिन साथ ही साथ दूबारा हानूश को घड़ी बनाने की इजाजत नहीं है इसलिए उसे उसकी आँखों से महरूम कर दिया जाता है | नाटककार की नाटक के माध्यम से सत्ता की अंधी नीति, उसके शासन व्यवस्था पर सहज व्यंग्य मानवीय संवेदना की सहज अभिव्यक्त है | कलाकार की मौत कभी नहीं होती है वह अपने सृजन के माध्यम से हमेशा जीवित रहता है | नाटक के अंत में हानूश का यह महसूस करना की अब घड़ी कभी नहीं बंद होगीअर्थात उसका भेद जानने वाला उसका सहयोगी जेकब शहर से बाहर जा चुका है | “हानूश के द्वंद्व, अनुभव और भावात्मक स्पर्श की ऐन्द्रिक अनुभूति के स्तर पर पाठक के मर्म को गहराई तक कचोटता है | अत्यंत कारुणिक और मार्मिक | अंत में, हानूश का यह कथन नाटक के लक्ष्य को सामने लाता है –“घड़ी बन सकती है, घड़ी बंद भी हो सकती है | घड़ी बनानेवाला अंधा भी हो सकता है, मर भी सकता है लेकिन यह बहुत बड़ी बात नहीं है | जेकब चला गया, ताकि घड़ी का भेद जिन्दा रह सके, यही सबसे बड़ी बात है |”3
हानूश का परिवेश मध्ययुगीन है | जहाँ पर राजा का शासन है और उसकी सबसे बड़ी चिंता है राजा के शक्ति का संरक्षण | राजा और नगरपालिका के आपसी राजनीति के बीच अपनी–अपनी शक्ति को कायम रखने के चक्कर में पिसा आम आदमी-हानूश | जैसाकि वर्तमान में भी राजनीति और राजनेताओं की आपसी कलह का शिकार आम आदमी ही होता है | वह चाहे जिस भी रूप में हो | अँधा होने के बाद हानूश काफी अंतर्द्वंद्व में जीता रहा | वह कभी अपनी सत्तरह साल की मेहनत से बनी घड़ी को तोड़ देना चाहता है तो कभी अपने आपको ही समाप्त कर देना चाहता है | इसी जद्दोजहद के बीच वह अपनी जिंदगी को अधियारों में व्यतीत करता है| अपने आपको समाप्त करने की भी कोशिश करता है | लेकिन सफल नहीं हो पाता | तभी अचानक घड़ी बंद हो जाती है | घड़ी की टिक-टिक की आवाज न सुनने पर वह परेशान हो जाता है | उसको देखकर ऐसा लगता है कि अब तक वह घड़ी की टिक-टिक से ही जिन्दा था | तमाम तरह से अपने जद्दोजहद के बीच जीवन जीता हुआ हानूश घड़ी को न चाहते हुए भी ठीक करता है| उसे यह जानकर बहुत ख़ुशी होती है कि उसका सहयोगी जेकब शहर से दूर जा चुका है जिसके माध्यम से घड़ी का भेद खुल सकेगा और वह इस तरह हमेशा के लिए जीवित भी रहेगा | हानूश अब निश्चिंत हो जाता है कि अब यह घड़ी कभी बंद नहीं होगी और उसका राज सबको मालूम हो सकेगा |
‘हानूश’ नाटक ‘सृजनात्मकता का संकट’ विषय पर केन्द्रित है | सृजनात्मकता का प्रश्न किसी भी कलाकार की सृजन शक्ति या उसकी निजी मौलिक प्रतिभा से सम्बंधित है | वह चाहे चित्रकार हो या कवि-लेखक या वैज्ञानिक हो | यही हुनर किसी भी कलाकार या वैज्ञानिक को समाज के अन्य व्यक्तियों से उसे अलग और अनोखा बनाता है | जैसे रंजीत देसाई के उपन्यास ‘राजा रवि वर्मा’ पर आधारित फिल्म ‘रंगरासियाँ’ के नायक राजा रविवर्मा का चित्रकारी (पेंटिंग) के क्षेत्र में अनोखा योगदान रहा है | जिसने सबसे पहले देवी-देवताओं की चित्रकारी की | नाटककार ‘मोहन राकेश’ के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास की सृजन शक्ति और स्वयं के संघर्ष पर ‘सृजनात्मकता का संकट’ का सहज चित्रण मोहन राकेश के यहाँ मिलता है | इसी प्रकार सच्ची घटना पर आधारित फिल्म ‘एक डाक्टर की मौत’ में नायक डॉ. दीपांकर राय का शोधकार्य के प्रति जुनून, लगन उन्हें चैन से जीने नहीं देता | शोध पर शोध करते हुए, करीब दस साल कुष्ठरोग के टीका की खोज में बिना किसी ऊब के अपनी जिंदगी को समर्पित करके ख़ुशी महसूस करते हैं| लेकिन दुःख की बात यह है कि हमारा समाज और क़ानून पूरी तरह से डॉ. दीपांकर राय के इतने बड़े शोधकार्य को मजाक बनाने और डॉ. दीपांकर राय की प्रतिभा को उनके शोध कार्य को उनकी छोटी सी लैब में ही समाप्त करने की राजनीति शुरू कर देता है| हानूश की तरह डॉ. दीपांकर राय से भी जवाब माँगा जाता है कि उसने किसकी अनुमति से यह शोधकार्य किया है | अपने ही लोग न मध्यकाल में कलाकार की प्रतिभा (उसके टैलेंट) को समझ पाये थे और न ही आज समझना चाहते हैं | बस अपनी शक्ति को बनाए रखने के लिए हानूश और डॉ. दीपांकर जैसी उभरने वाली न जाने कितनी प्रतिभाओं और उसके रिसर्च को यूं ही बिना किसी वजह के समाप्त कर दिया जाता है | मध्यकाल में भी हमें बहुत से उदाहरण मिल जायेंगे जब राजतंत्र में कलाकार की कलाकारी पर केवल राजा का अधिकार था | राजा अपने अनुसार अपनी शक्ति और शान को बनाए रखने के लिए कलाकार की प्रतिभा को सम्मानित करने के बजाय उसे समाप्त करने की वह पूरी कोशिश करता है| कलाकार की कला, उसकी सृजन शक्ति पर अपना अधिकार चाहता है | जिससे समाज में उसका वर्चस्व हमेशा बना रहे | जैसा कि शाहजहाँ ने बेगम मुमताज की याद में सुन्दर इमारत ‘ताजमहल’ बनाने वाले कारीगर का हाथ कटवा दिया था | जिससे वह मिस्त्री ताजमहल जैसी दूसरी कोई इमारत न बना सके | ऐसी स्थिति में शक्ति का प्रतीक राजा प्रजा स्वरूप कलाकार के जीवनयापन का पूरा इंतजाम करके वह अपने आपको महान जरूर समझता है, लेकिन एक कलाकार की कारीगरी, उसकी अपनी प्रतिभा, उसका अपना हुनर जिससे उसे अपनी जिंदगी में अपार ख़ुशी और सुकून मिलता है | जिस प्रतिभा और संघर्ष की उसे सराहना मिलनी चाहिए थी उसी प्रतिभा (टैलेंट) और संघर्ष का वह शिकार होकर सदा के लिए अपाहिज हो जाता है | हानूश के साथ भी यही होता है | चित्रकार रविवर्मा जैसा कि फिल्म में दिखाया गया है वह भी समाज में फैली रूढ़िवादी परम्परा और संस्कृति के साथ-साथ गन्दी राजनीति फैलाने वालों के हाथों का पुतला बन कर रह जाता है | फिल्म ‘एक डॉक्टर की मौत’ में फिल्म का नायक डॉ. दीपांकर राय कुष्ठरोग के टीके की खोज में अपनी पूरी जिंदगी गवाने के बाद जब वह सफर होता है तो देश के राजनीतिक संगठनों के बीच फंसकर मौत के करीब पहुँच जाता| उसका अपना रिसर्च गन्दी राजनीति के हाथों बिक जाता है | और वह असहाय की तरह देखता रह जाता है | इस प्रकार उसकी वर्षों की मेहनत पर किसी और का अधिकार हो जाता है और वह हाथ मलकर रह जाता है | लेकिन वह हानूश की तरह हिम्मत नहीं हारता हमेशा अपने काम के प्रति आशावान बना रहता है | डॉ. दीपांकर राय सामाजिक, राजनीतिक, गतिविधियों से परेशान होकर कहता है कि-ये लोग किस पर छूड़ी चलाएंगे मुझ पर, साइंस पर तो नहीं चला सकते | एक वैज्ञानिक मरेगा तो उसकी जगह पर दूसरा वैज्ञानिक रिसर्च करेगा | उसी तरह हानूश भी राजसत्ता, समाजसत्ता और धार्मिक सत्ता की गतिविधियों से परेशान होता है और उसकी आँखें भी निकलवा ली जाती है जिससे वह दूसरी घड़ी न बना सके | लेकिन एक कलाकार के लिए उसका आशावान बने रहना ही उसमें ऊर्जा का संचार करता है | हानूश तमाम तरह के अंतर्द्वंद्व को झेलता हुआ तब पूरी तरह से सुकून महसूस करता है जब उसे पता चलता है कि घड़ी का भेद जानने वाला उसका सहयोगी जेकब शहर से बाहर जा चुका है| अब उसकी इतने दिनों की मेहनत सफल हो गई |
नाटक में पात्रों के माध्यम से जीवन की सच्चाई, मानवीय संवेदना और जीवन जीने की कला के साथ-साथ मानव जीवन में चीजों के महत्त्व के बारे में बहुत ही सूक्ष्मता से बताया गया है | इतना ही नहीं राजतंत्र की मानवीय संवेदनहीनता को भी उजागर किया गया है | प्रजापालक राजा भी अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए मानवीय संवेदना को कुचलने से बाज नहीं आता है | नाटक में पात्रों के माध्यम से नाटककार जीवन के मूल्यों और मानवीय संवेदनाओं के साथ-साथ रूढ़िवादी मान्यताओं पर व्यंग्य करने से भी नहीं चूकता है| एक प्रसंग आता है जब हानूश का बड़ा भाई पादरी कात्या को पैसे की अहमियत और उसका जीवन में कहाँ तक और कितना महत्त्व है | इस बात को समझाते हुए कहता है कि- जीवन में ख़ुशी, सुकून पैसे से नहीं ख़रीदा जा सकता है | पादरी का कथन – “पैसे वाले कौन से सुखी हैं, कात्या? अगर पैसे से ही सुख मिलता हो तो राजा–महाराजों जैसा सुखी ही दुनिया में कोई नहीं हो |”4 इसी प्रकार पादरी स्वयं से जीवन के रहस्यों के बारे में प्रश्न करता है कि- इंसान की जिंदगी का मकसद क्या है और क्या होना चाहिए? वह इस प्रश्न को लेकर परेशान रहता है| और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि किसी चीज के प्रति व्यक्ति के ‘मन में स्थिरता होनी चाहिए |’ हानूश मन की स्थिरता के प्रश्न पर व्यंग्य करता हुआ कहता है कि- “आप स्थिरता चाहते हैं | पर स्थिरता तो भाई साहिब, पोखर के पानी में ही होती है, और कहीं तो मैंने स्थिरता नहीं देखी |5  इसी प्रकार हानूश का परिवार की आवश्कताओं पर ध्यान न देना और परिवार के प्रति उसकी लापरवाही की वजह से कात्या उसे स्वार्थी कहती है | जिसे केवल अपनी घड़ी से मतलब है | कात्या कहती है कि- “तुम परले दर्जे के स्वार्थी हो | तुम्हें सारा वक्त अपने काम से मतलब रहता है- हम जिएँ–मरे, तुम्हारी बला से |6 यही धारणा मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास के बारे में अम्बिका रखती है कि कलाकार स्वार्थी होता है | ऐसी ही सोच हम फिल्म ‘रंगरसिया’ और ‘एक डॉक्टर की मौत’ में भी देख सकते हैं | एक कलाकार अपनी कला और सृजन के प्रति इतना डूब जाता है कि उसे स्वयं की भी परवाह नहीं होती | कलाकार का यही जूनून उसे समाज के अन्य व्यक्तियों से अलग कर और अपनी कला के प्रति समर्पण पैदा करता है| हानूश का जुनून भी ऐसा ही था जिसकी तरफ इशारा करके कात्या उसे स्वार्थी व्यक्ति की संज्ञा देती है | जबकि सही यह है कि कलाकार स्वार्थी नहीं होता कला का नशा उसे कुछ और देख पाने या कर पाने की तरफ ध्यान देने नहीं देता | कोई भी कलाकार अपने काम के प्रति समर्पित भाव से अपना सबकुछ देकर ही महान बन पाता है | किसी भी कलाकार की निगाह अपने लोगों तक सीमित न होकर सम्पूर्ण विश्व के स्वप्न को लिए आगे बढ़ती है | लेकिन अपनों से वह कभी अलग नहीं होता है क्योंकि अपनों के सहयोग के बिना वह कुछ नहीं होता | यह बात कुफ्लसाज हानूश, चित्रकार रवि वर्मा, लेखक कालिदास और डॉ. दीपांकर राय भी सभी स्वीकारते हैं कि-‘ये सब तुम्हारी वजह से है, तुम्हारे सहयोग के बिना कुछ सम्भव नहीं था |’ कात्या को जब हानूश की प्रतिभा और उसके संघर्ष का एहसास होता है, तब वह कला के मर्म और उसके काम की महत्ता को समझ पाती है| फिर वह कहती है- “अब तुम आजाद हो | अपने वजीफे का इंतजाम करो और घड़ी बनाओ | मैं तुमसे कभी कुछ नहीं कहूँगी|”7 कला के मर्म और कलाकार की प्रतिभा का भान होने पर कात्या की तरह ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक की नायिका अम्बिका भी कालिदास को उज्जैन राजा के संरक्षण में जाने से नहीं रोकती है | क्योंकि वह कलाकार की कला से प्रेम करती है | उसी तरह फिल्म ‘रंगरसिया’ की नायिका भी कला के अमरत्व के महत्त्व को समझते हुए चित्रकार रवि वर्मा की सहयोगिनी बनती है | जिसके लिए वह अपना सब कुछ समर्पित कर देती है | ‘एक डॉक्टर की मौत’ में भी रिसर्च के दौरान नायक डॉ. दीपांकर राय की पत्नी उनसे चिढ़ती जरूर है लेकिन एक समय के बाद वह डॉक्टर के कठिन परिश्रम और संघर्ष को समझ पाती है | जब उसे डॉक्टर की प्रतिभा का भान होता है, तब वह शोधकार्य को महत्त्व देती हुई नायक की सहयोगिनी के रूप में सामने आती है
किसी भी तरह की सृजनात्मकता किसी के आदेश की मुहताज नहीं होती और न ही कोई किसी से कहकर सृजनशीलता के प्रति उसकी बेचैनी और सहज सृजन शक्ति को पैदा ही किया जा सकता है | हानूश से महाराज का यह कथन की हानूश ने घड़ी बनाने के लिए उनकी इजाजत क्यों नहीं ली | किसी कलाकार से यह बहुत ही बेतुका प्रश्न है | सृजनशीलता सहज एहसास की सहज कृति होती है| इसे किसी शासन सत्ता के द्वारा या किसी सत्ता की कैद में इसे उत्पन्न नहीं किया जा सकता | हानूश की घड़ी बनाने की अपनी सृजन शक्ति, उसका अपना जुनून था, जिसके लिए वह समर्पित भाव से अभावहीन स्थिति में भी विचलित नहीं होता है | जिस कारण वह एक दिन घड़ी बनाने में सफलता होता है|
‘हानूश’ नाटक का कथानक सामंतीयुग के विघटन और पूंजीवाद के आगमन का संकेत करता है | नाटक के माध्यम के यह दिखाने की कोशिश की गई है कि अब वह समय नहीं रहा जब सभी चीजों पर केवल राजतंत्र का शासन होता था| राजा जैसे चाहे किसी के विकास की गति को मोड़ सकता था, जब चाहे, जो चाहे कर सकता था| सभी चीजों पर अपना आधिपत्य कायम कर सकता था| नाटक के माध्यम से भीष्म साहनी जी यहीं बताने की कोशिश करते है की हानूश को अंधा बना देने से विकास की गति रूक नहीं सकती है | यहाँ पर कलाकार सामंतवाद और पूँजीवाद दोनों से परेशान है फिर भी वह अपने काम को बंद नहीं करता है क्योकिं उसे आशा है कि आने वाला कल उसका अपना है |
राजसत्ता, समाजसत्ता और धार्मिक सत्ता के बीच जूझता कलाकार और उसकी सृजनात्मकता का संकट वास्तव में बहुत ही असहनीय है, जिसकी तरफ भीष्म साहनी संकेत करते हैं | घड़ी बनाने में राज्य की दो संस्थाओं ने कुछ आर्थिक मदद की थी, जिसमें गिरजाघर और नगरपालिका शामिल हैं | ऐसा करने के पीछे दोनों का अपना-अपना स्वार्थ था | स्वार्थसिद्ध की प्राप्ति से हमेशा मानवीय संवेदनाओं का हनन होता है | जिसकी वजह से दोनों अपनी–अपनी स्वार्थसिद्ध की पूर्ति के लिए यह चाहते थे कि घड़ी हमारे यहाँ लगे | नगरपालिका के लोग व्यापारी पूंजीपति लोग थे जो घड़ी से अपना फायदा कमाना चाहते थे अर्थात व्यापार करना चाहते थे तो दूसरी तरफ गिरजाघर के लोग घड़ी को अपने यहाँ तो लगवाना चाहते थे लेकिन वे घड़ी के आविष्कार से खुश नही थे | क्योंकि उनके लिए घड़ी का निर्माण ईश्वरीय शक्ति का उलंघन था | कलाकार हानूश की घड़ी पर राजसत्ता, समाजसत्ता और धार्मिक सत्ता के बीच घड़ी पर अपना-अपना अधिकार दिखाते हुए उनके बीच होने वाली बातचीत एक झलक इस प्रकार है-
“जान – सुनो | सब बात सोच-समझ लो | नगरपालिका ने जो वजीफा हानूश को दिया है, वह घड़ी बनाने के लिए दिया गया था | इसका मतलब यह नहीं कि घड़ी पर नगरपालिका का हक़ हो जाता है | इस बारे में हानूश के साथ कोई मुआइदा तो नहीं हुआ था कि घड़ी नगरपालिका पर लगाई जाएगी |
शेवचेक- जो पैसा देता है, चीज उसी की होती है, यह तो व्यापार की बात है |
जान- यह तो तुम अब कह रहे हो न ! क्या उस वक्त कोई मुआइदा हुआ था ? उस वक्त तो केवल एक गरीब कुफ्लसाज की मदद की जा रही थी |
जार्ज- फिर घड़ी किसकी है ?
जान- मैं कहूंगा, जिसने घड़ी बनाई है, घड़ी उसी की है | घड़ी हानूश की है |
हुसाक- नहीं, राज्य की हर चीज पर हक़ बादशाह का होता है | इसलिए घड़ी कहा लगेगीइसका फैसला न हानूश कर सकता है, न लाट पादरीन हम लोग | इसका फैसला बादशाह सलामत ही कर सकते हैं |”8
नाटक के तीसरे अंक में सृजनशीलता के प्रश्न और राजसत्ता का आमजन पर होने वाले अत्याचार को सहजता से स्वीकार करती हुई कात्या कहती है कि-हम गरीब लोग बादशाहों से टक्कर नहीं ले सकते हैं | हमारी बिसात ही क्या है ? हानूश का मित्र एमिल कात्या को समझाते हुए कहता है कि- ऐसा नहीं है “जो लोग कोई नया काम करेंगे, उन्हें तरह-तरह की जोखिमें तो उठानी ही पड़ेंगी| यही बात  फिल्म ‘एक डॉक्टर की मौत’ में डॉ. दीपांकर को समझाते हुए पत्रकार अमूल्य भी कहता है | आगे एमिल कात्या को समझाते हुए कहता है कि- हानूश को अंधा ही इसलिए किया गया कि महाराज सौदागरों और गिरजेवालों के बीच अपनी ताकत को बनाए रखें |”9
नाटक की भाषा बहुत ही प्रवाहपूर्ण है जो नाटक की नाटकीयता को सफल बनाने में सहायक है | नाटक की भाषा के सम्बन्ध में डॉ. गिरीश का यह कथन बिलकुल सही है कि- “हानूश की मानसिक यातना, द्वंद्व, सृजनशीलता, संवेदनशीलता, तन्मयता, तल्लीनता, करुणा, पीड़ा आदि मनोभावों को भी उन्होंने सहज भाषा में बड़ी ऊष्मा आतंरिक छुअन के साथ अभिव्यक्ति दी है | घड़ी के नाजुक पुर्जों को छूने की, उसकी कोमलता और आकुलता के अनुरूप ही भाषा और संवादों का अत्यंत नाजुक गठन है |”10    

इस प्रकार हम देखते हैं कि अंधा होने के बाद हानूश तमाम तरह की सुख सुविधा के बीच रहते हुए भी वह अपनी जिंदगी में सुकून भरा एक पल भी महसूस नहीं कर पाता है | नाटक के माध्यम से भीष्म साहनी सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों पर तीखी टिप्पणी करते हैं | हानूश मानवीय संवेदना की खोज और उसके संरक्षण के लिए प्रयासरत दिखाई देता है | यह कहना गलत नहीं होगा कि भीष्म साहनी के रचना कर्म का मुख्य बिंदु ही मानवीय संवेदना की उसकी मनुष्यता की खोज करना है | भीष्म साहनी एक गरीब आम आदमी की सृजनशीलता को उभारते हुए यह बताने की कोशिश करते हैं कि किस प्रकार एक आम आदमी अपनी संघर्षशीलता के चलते कठिन मेहनत के बल पर सृजनशीलता का धनी होता है लेकिन समाज में व्याप्त राजसत्ता, समाजसत्ता और धार्मिक सत्ता तीनों मिलकर आर्थिक तंगी के कारण विवश कलाकार हानूश की रचनाशीलता पर अपना–अपना हक़ दिखाते हुए उसकी रचनात्मकता का हनन करते हैं | समाज में ऐसी कितनी प्रतिभाएं होगी जो आर्थिक तंगी की वजह से उभर नहीं पाती हैं| हानूश अपनी स्थितियों से विचलित जरूर हुआ | लेकिन घर-बाहर की बहुत सी गतिविधियों से संघर्ष करता हुआ वह आगे बढ़ता रहा और सफल भी हुआ | उसे सफलता की ख़ुशी से ज्यादा निराशा हाथ लगी | फिर भी वह अपनी जिंदगी की जद्दोजहद से संघर्ष करता हुआ भविष्य के लिए हमेशा आशावान बना रहा | जिस वजह से वह अपने सृजन कार्य में अंतत: सफल भी हुआ |



सन्दर्भ-सूची:
हानूश –                        भीष्मसाहनी राजकमल प्रकाशन – संस्करण चौथा 2010
डॉ गिरीश रस्तोगी -               समकालीन हिंदी नाटक की संघर्ष चेतना,
हरियाणा साहित्य अकादमी चंडीगढ़,प्रथमसंस्करण -1990
(1) पृष्ठ सं.110
हानूश –                        भीष्म साहनी राजकमल प्रकाशन – संस्करण चौथा 2010
 (2)पृष्ठ सं.11
 (3)पृष्ठ सं.140
 (4) पृष्ठ सं.15
 (5) पृष्ठ सं.27
 (6)पृष्ठ सं.43
 (7)पृष्ठ सं.53-54
 (8)पृष्ठ सं.53-54
 (9)पृष्ठ सं.104
डॉ गिरीश रस्तोगी-                      समकालीन हिंदी नाटक की संघर्ष चेतना
 (10)पृष्ठ सं.115
जयदेव तनेजा-                               नई-रंग चेतना और हिंदी नाटककार
तक्षशिला प्रकाशन -110002
इन्द्रनाथ मदान-                              हिंदी नाटक और रंगमंच, लिपि प्रकाशन
दिल्ली-110059
मोहन राकेश -                        आषाढ़ का एक दिन, राजपाल एण्ड सन्ज
प्रकाशन -110006
फिल्म सन्दर्भ-
(अ) रंगरसिया
(ब) एक डॉक्टर की मौत   




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विद्यापति का सौन्दर्य वर्णन (vidhyapati ka saundarya varnan)

January 19, 2018 4 Comments


विद्यापति का सौन्दर्य वर्णन

“वास्तव में जीवन सौन्दर्य की आत्मा है। सामंजस्य की रेखाओं में जितनी मूर्तिमत्ता पाता हूँ, विषमताओं में नहीं। ज्यों-ज्यों हम बाह्य जीवन की विविधताओं में उलझते जाते हैं, त्यों-त्यों इसके मूलगत सौन्दर्य के भूलते जाते हैं।” – (महादेवी)
सौन्दर्य चेतना का उज्ज्वल वरदान है, सौन्दर्य ही जीवन की आत्मा है। इस नश्वर संसार में जब हम एक-दूसरे के साथ समान भाव से मिलजुल कर रहते हैं, तभी हम आपसी प्रेम रूपी-सौन्दर्य की प्राप्ति कर पाते हैं। जब मनुष्य ‘सौन्दर्य’ की खोज केवल बाह्य ‘भौतिक आडम्बरों’ में करता है तो वह अपने आतंरिक मूलगत सौन्दर्य को भूल जाता है। जबकि- आतंरिक सुन्दरता ही स्थायी एवं सच्ची होती है।
वास्तव में सौन्दर्य क्या है ? इसे परिभाषित नहीं किया जा सकता है। क्योंकि सौन्दर्य की कोई सीमा या मापदण्ड नहीं होता है। संसार की वह हर वस्तु चाहे वह जड़ हो या चेतन सबका अपना अलग-अलग गुण, धर्म या सौन्दर्य होता है। लेकिन वह सुन्दरता वस्तुनिष्ठ है या व्यक्तिनिष्ठ वह तो देखने वाले पर निर्भर करती है। क्योंकि संसार का हर एक मनुष्य किसी वस्तु को देखता तो आँखों से ही हैं लेकिन सबका नजरियाँ अलग-अलग होता है। जैसे- जब मथुरा में भगवान श्रीकृष्ण को प्रजा देखती थी तो श्रीकृष्ण का सौन्दर्य ‘प्रजा के रक्षक’ (तारणहार) के रूप में दिव्य-सौन्दर्य की प्राप्ति होती थी। लेकिन जब श्रीकृष्ण के उसी दिव्य-सौन्दर्य को ‘राजा कंश’ देखता था तो वही दिव्य-सौन्दर्य रूपी मूर्ति कंश को उसके ‘काल’ के रूप में भयभीत करती थी। इस प्रकार एक तरफ हम देखते हैं कि श्रीकृष्ण का वही दिव्य-सौन्दर्य जहाँ एक तरफ सौन्दर्य बिखेर रहा होता है, वही दूसरी तरफ वही दिव्य-सौन्दर्य भय का संचार भी कर रहा होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सौन्दर्य द्रष्टा की आँखों में बसता है।
सौन्दर्य अपने आपमें ही बहुत व्यापक शब्द है। सौन्दर्य की चर्चा केवल रूप सौन्दर्य के माध्यम से नहीं की जा सकती है। सौन्दर्य रूप, प्रकृति, श्रमिक, युद्ध आदि सबका सौन्दर्य होता है। संसार में कुछ ऐसी भी चीजें होती हैं जिसे देखकर हमें प्रसन्नता होती है। और उस वस्तु को हम बार-बार देखना चाहते हैं, सौन्दर्य वहां भी होता है। विद्यापति भी ऐसी ही दृष्टिकोण के कवि हैं। विद्यापति स्वयं के सौन्दर्यानुभूति को कविता के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं। ऐसा करने के लिए उन्होंने चाहे मिथिला की सुंदरियों के सौन्दर्य को निहारा हो, या रानी लखिमा देवी के सौन्दर्य से अभिभूत हुए हो, चाहे राधा-श्रीकृष्ण के छवि की कल्पना करते हुए आध्यात्मिकता में भी प्रवेश किया हो। जहाँ पर इन्होंने नायिका के बाह्य सौन्दर्य के वर्णन को ‘वय: संधि’ के माध्यम से प्रकट किया है, वहीँ पर दूसरी तरफ विद्यापति अरूप-सौन्दर्य के साथ-साथ नायक के भी अपरूप सौन्दर्य को उभारा है। विद्यापति नायक-नायिका के बाहरी सौन्दर्य को चित्रित्र करने में जितने कुशल हैं, उतने ही वह आतंरिक मनोदशा को भी रेखांकित करने में प्रवीण रहे हैं।
हिंदी साहित्य जगत में विद्यापति का अद्वितीय स्थान है। इनका जन्म 14वीं शती के आस-पास हुआ था। अभिनव जयदेव की उपाधि से विभूषित जयदेव आदिकाल के मुख्य कवियों में से एक हैं। लेकिन आचार्य रामचंद्र शुक्ल ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ में इनकी गणना आदिकाल के फुटकर खाते में करते हैं। विद्यापति की मुख्य तीन रचनाओं में ‘कीर्तिलता’, ‘कीर्तिपताका’, अवहट्ठ भाषा और ‘विद्यापति पदावली’ मैथिली भाषा में हैं। विद्यापति को सर्वाधिक प्रतिष्ठा पदावली से मिली। पदावली में राधा-श्रीकृष्ण के माध्यम से नायक-नायिका के अपरूप-सौन्दर्य और उनके शृंगार वर्णन की अद्भुत झांकी यथार्थ के धरातल पर प्रस्तुत करते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल विद्यापति के पदावली में नायक-नायिका के शृंगार वर्णन के सम्बन्ध में लिखा है –“आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने ‘गीत गोविन्द’ के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को।” अर्थात विद्यापति शृंगारी कवि हैं न कि भक्त कवि। अगर उन्हें कोई भक्त कवि की संज्ञा दी जाती है तो वह आध्यामिक रंग के चेश्मे से देखते हैं। क्योंकि पदावली में अलौकिक जगत के राधा-श्रीकृष्ण को आधार बनाकर, लौकिक जगत में व्याप्त यहाँ के नायक-नायिकाओं के प्रेम सम्बन्ध और उनके वय: संधि का वर्णन किया गया है। इसीलिए आलोचकों के बीच ‘विद्यापति भक्ति कवि हैं या शृंगारी कवि’ यह बहस का मुद्दा है। पदावली में राधा-श्रीकृष्ण के माध्यम से नायिका के वय: संधि, नख-शिख, सद्य: स्नाता का जितनी सूक्ष्मता से गहराई में जाकर नायिका के रूप–सौन्दर्य का वर्णन किया गया है, उससे इन्हें भक्ति कवि कम, शृंगारी कवि ज्यादा कहा जाना चाहिए। एक शृंगारी कवि होने के कारण विद्यापति के काव्य में नायिका के रूप–सौन्दर्य का अद्भुत चित्रण देखने को मिलता है।
काव्य–परम्परा की शुरुआत सर्वप्रथम संस्कृत काव्य से होती है। संस्कृत के कालिदास, महाकवि माघ, हिंदी साहित्य के विद्यापति के समकालीन चंडीदास, चंदबरदायी आदि हैं। इन कवियों के यहाँ भी सौन्दर्य की अद्वितीय छंटा दिखाई देती है। महाकवि कालिदास को मानों सौन्दर्य के लिए उपमा के क्षेत्र में मानों महारथ हासिल हो। कालिदास ने “अभिज्ञानशाकुन्तलम्” नाटक में नायिका शकुंतला के रूप-सौन्दर्य का अद्वितीय वर्णन प्रकृति के माध्यम से प्रस्तुत किया है। जिस कारण उन्हें “उपमाकालिदास्स्य” की उपाधि दी गई है। कालिदास की तरह हिंदी साहित्य में अगर किसी ने नायिका के रूप सौन्दर्य का वर्णन किसी ने किया है तो वह विद्यापति हैं। नायिका के अपरूप सौन्दर्य आतंरिक एवं बाह्य परिवर्तनों पर खुलकर सूक्ष्मता से लेखनी चलाने का किसी ने साहस किया है तो वह विद्यापति हैं। कालिदास ने अपने नाटक ‘अभिज्ञानशाकुन्तल’ में नायिका के सौन्दर्य को ऐसे निखारा है कि नायक दुष्यंत नायिका शकुंतला को देखकर अवाक् रह जाता है।
“अधर: किसलय राग: कोमलविटपानुकारिणौ बाहू।
कुसुममिव लोभनीयं यौवनमड्गेषु संनदध्म्।।”
दूसरी तरफ नायिका के अपरूप सौन्दर्य को देखकर विद्यापति स्वयं चकित हो जाते हैं –
“माधव पेखल अपरूप बाला। सैसव जौवन दुहु एक भेला।।
विद्यापति कह तोहे अगेआनि। दुहु एक जोग एक के कह सयानी।।”
विद्यापति के पदों में प्रकृति केवल उद्दीपन रूप में ही नजर आती है। जबकि कालिदास के यहाँ प्रकृति की भरमार दिखाई देती है। विद्यापति के यहाँ जैसे – काली रात का होना, बिजली का तडकना, नायिका का अभिसार के लिए जाने में सहायक होना आदि मुख्यत: इन्हीं जगहों पर देखने को मिलता है। विद्यापति के समकालीन चंडीदास थे। उन्होंने भी विद्यापति की तरह लोक भाषा को महत्त्व दिया। जबकि उस समय सामंती समाज में लोक भाषा को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता था। इस प्रकार विद्यापति ने लोक भाषा में लेखनी चलाकर यह साबित किया कि प्रत्येक रचना का अपना-अपना उद्देश्य होता है। बिना उद्देश्य की कोई रचना हो ही नहीं सकती। इस प्रकार हम देखते हैं कि जिस समय राजदरबार के अन्दर कविता का अस्तित्व था, कविता वहीँ पलती-बढती थी, ऐसी स्थिति में इन्होंने लोक के आम लोगों के लिए, उनकी स्थिति को ध्यान में रखकर उन्हीं की ही भाषा में कविता पाठ किया। इस प्रकार लोक भाषा में राधा-श्रीकृष्ण को केंद्र में रखकर दोनों कवियों ने स्वतन्त्र पद लिखें। लेकिन राधा की भावनाओं पर अधिक जोर विद्यापति ने दिया। विद्यापति के पदों में सुख अधिक है, करूणा कम, विलास अधिक है। जबकि चंडीदास के पदों में स्वभाविकता, गंभीर बनाने वाली वेदना है, और समाज की मर्यादा को तोड़ने वाला प्रेम है। इनका प्रेम-सौन्दर्य लोक व्यवहार  मात्र है। 
विद्यापति की पदावली एक शृंगारिक रचना है। शृंगार के दो भेद होते हैं। ‘संयोग सृंगार एवं वियोग शृंगार’। संयोग शृंगार से तात्पर्य नायक-नायिका के आपसी मिलन और वियोग का तात्पर्य आपसी अलगाव से है। विद्यापति की नायिका ‘राधा’ वियोग में संयोग के पलों को याद करती है। इनकी पदावली में संयोग पक्ष बहुत ही मार्मिक एवं कलापूर्ण है। विद्यापति सौन्दर्य और प्रेम के कवि हैं। ‘प्रेम’ विद्यापति के काव्य की सबसे बड़ी प्रेरणा है। ‘विद्यापति पदावली’ के पदों के सम्बन्ध में डॉ. ग्रियर्सन का कथन है– “हिन्दू धर्म का सूर्य अस्त हो सकता है, वह समय भी आ सकता है, जब श्रीकृष्ण में विश्वास और श्रद्धा का अभाव हो कृष्ण प्रेम की स्तुतियों के प्रति जो हमारे लिए इस भवसागर के रोग की दवा है, विश्वास जाता रहे, तो भी विद्यापति के गीतों की प्रति, जिनमें राधा और श्रीकृष्ण के प्रेम का वर्णन है, लोगों की आस्था और प्रेम कभी कम न होगा।” क्योंकि विद्यापति की पदावली लोकभाषा में एक चर्चित रचना है। किसी को श्रेष्ठ होने की मुहर समाज के द्वारा ही  मिलती है। इन्होंने राधा-श्रीकृष्ण को आधार बनाकर समाज के सभी क्रिया-कलापों को रेखांकित करते हैं। सांसारिक भौतिक प्रेम को प्रकट करने के साथ-साथ स्त्रियों के सभी दशाओं को भी चित्रित करते हैं।
विद्यापति ने अपनी पदावली की रचना ‘मुक्तक’ शैली में की है। ‘मुक्तक’ छंद की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसका प्रत्येक पद स्वतन्त्र होता है। विद्यापति के पदों को पढ़ते समय हमारे सामने अचानक रमणीय दृश्य प्रकट हो जाता है, उन्हें मंत्र मुग्ध भी कर देता है। विद्यापति की पदावली सौन्दर्य की पिटारी है। ‘विद्यापति’ ने इसमें सौन्दर्य के आतंरिक एवं बाह्य दोनों रूपों का चित्रण बड़े ही सहज ढंग से किया है। इसमें बाहरी और आतंरिक सौन्दर्य को अनेक रूपों में देखा जा सकता है। जैसे– नख-शिख वर्णन, वय:संधि, नोंक-झोक, स्मरण, राधा का प्रेम प्रसंग, सघ:स्नाता का वर्णन, प्रकृति-चित्रण आदि। इन सभी रूपों में विद्यापति के सौन्दर्य की अलग छंटाये देखने को मिलती है। कालिदास, माघ, दंडी आदि। कवियों का ‘नख-शिख’ वर्णन ‘नख; से शुरू होता है लेकिन विद्यापति का ‘नख-शिख’ वर्णन नायिका के ‘नख’ से न शुरू हो करके इनकी दृष्टि सौन्दर्य के लिए सर्वप्रथम नायिका के स्तनों पर टिकती हैं, जिस सौन्दर्य के विद्यापति चितेरे हैं।
“पीन पयोधर दूबरि गता।
मेरू उपजल कतक-लता।।
ए कान्हु ए कान्हु तोरि दोहाई।
अति अपूरूप देखलि साईं।। ”
विद्यापति ने नायिका के अंग–सौन्दर्य का वर्णन लौकिक नायिका की भांति किया है। जिसके माध्यम से नायिका के अंग-प्रत्यंग के सौन्दर्य का वर्णन किया है।
“सुधा मुखि के बिहि निरमल बाला।
अपरूप रूप मनोभव मंगल त्रिभुवन विजयी माला।।”
विद्या पति नायिका का ही नहीं नायक के रूप-सौन्दर्य का भी वर्णन उतनी ही तन्मयता से किया है।
“कि कहब हे सखि कानुक रूप
के पतियाए सपन सरूप।
अभिनव जलधर सुन्दर देह
पीत बसन पर दामिनी रेह।।”
सद्य:स्नाता रूपी–सौन्दर्य से तात्पर्य नायिका के स्नान वर्णन से है। विद्यापति नायिका के रूप–सौन्दर्य के वर्णन करने में माहिर तो थे ही सद्यः स्नाता वर्णन के वह पूरी तरह से सिद्धहस्त थे। सरोवर से स्नान करके तुरंत निकली नायिका के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए लिखते हैं –
“कामिनि करत सनाने। हेरितहि हृदय हनय पंचबाने।।
चिकुर गरए जलधारा। जनि मुख ससि डर रोअए अंधकारा।।
कुचजग चारु चकेवा। निज कुल मिलि आन कौन देवा।।
ते शंका भुज पासे। बांधि धएल उडि जाएत अकासे।।”
विद्यापति की पदावली में नायक-नायिका के यौवन और विलास मुख्य विषय बनाया गया है। नायिका के बाह्य सौन्दर्य के वय:संधि का वर्णन बहुत ही सूक्ष्मता से किया है। जहाँ तक नख-शिख वर्णन की बात है वह अन्य कवियों की रचनाओं में भी देखने को मिलता है। लेकिन विद्यापति उस परम्परा से कुछ अलग ही दिखाई देते हैं। कवि ने नायिका का नख-शिख वर्णन खूब जमकर किया है। विद्यापति रूप-सौन्दर्य के चितेरे हैं। इनके रूप सौन्दर्य की झलक हमें ‘वय: संधि’ सम्बन्ध पदों में देखने को मिलता है। नायिका बचपन को छोड़ती हुई युवा अवस्था में प्रवेश कर रही है। उसमें शारीरिक परिवर्तन के साथ-साथ मानसिक परिवर्तन भी हो रहा है। ऐसे सूक्ष्म परिवर्तनों की जितनी सूक्ष्मता से विद्यापति ने देखा और जाना है, उतना किसी अन्य कवि की दृष्टि वहाँ तक नहीं पहुंची है। विद्यापति ने इस सौन्दर्य को बड़े ही काव्यात्मक ढंग से निहारा है।
“सैसव जौवन दुहु मिल गेल।
स्रवनक पथ दुहु लोचन लेल।।
वचनक चातुरि लहु-लहु हास।
धरनिये चाँद कएल परगास।।”
इसी प्रकार वय: संधि सौन्दर्य को ‘मतिराम’ ने अपने ग्रन्थ ‘रसराज’ में भी रेखांकित किया है। लेकिन विद्यापति जैसी सूक्ष्मतम दृष्टि से नहीं है-
“अभिनव जोबन आगमन जाके तन में होय।
ताको मुग्धा कहते हैं कवि कोविद सब होय।।”
वय: संधि के पदों में विद्यापति नायिका के शारीरिक एवं मानसिक चंचलता को भी सूक्ष्मता से बताते हैं। वह चंचलता रूपी सौन्दर्य केवल नायिका ‘राधा’ का न हो करके संसार भर की हर नव-युवती का है। जैसे नयनों का चंचल होना। विद्यापति का सौन्दर्य तब और अपनी पराकाष्ठा को प्राप्त कर लेता है, जब वह नायिका के माध्यम से समाज की अन्य स्त्रियों को समझाते हुए सचेत करते हैं कि –
“विद्यापति कवि गाओल रे धनि मन धरु-धीर।
समय पाए तरुवर फर रे कतयों सिचु नीर।।”
हे तरुणी धीरज को धारण करो। समय आने पर तुम्हारा मिलन नायक ‘श्रीकृष्ण’ से जरुर होगा। क्योंकि बिना समय के वृक्ष में फल भी नहीं आते, कोई उसे चाहे जितना पानी क्यों न दे।
विद्यापति नायिका के रूप-सौन्दर्य के अद्भुत चितेरे हैं। वह राधा के रूप-सौन्दर्य का वर्णन करने से अभी अघाते नहीं हैं। इनकी अगाघ सौन्दर्य दृष्टि नायिका के सौन्दर्य की तलाश विविध रूपों में करती है। विद्यापति नहाती हुई नायिका के अपरूप सौन्दर्य को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि ऐसी अपरूप सौन्दर्य से युक्त नायिका को देखकर किसके मन में उमंगों का संचार एवं सुखद अनुभूति नहीं होगी।
कामिनी करर सनाने। हेरितहि हृदय हनए पंचबावे।
चिकुर गरए जलधारा। जनि मुख-ससि डर रोअए अंधारा।।
 विद्यापति के सौन्दर्य वर्णन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि नायिका के रूप-सौन्दर्य के वर्णन के साथ-साथ नायक के भी रूप-सौन्दर्य के वर्णन में उतनी ही गहराई में जाकर सौन्दर्य को रेखांकित करने की कोशिश की है। विद्यापति के सौन्दर्य वर्णन की यही खूबी उन्हें अन्य कवियों के नख-सिख वर्णन से अलग कर उस पराकाष्ठा तक पहुंचा देती है, जहाँ दोनों मिलकर एक हो जाते हैं। नायिका नायक की सुन्दरता को अपनी सखियों से बताते हुए कहती है कि-
“कि कहब हे सखि कानुक रूप।
के पति आएत सपन सरूप।।
अभिनव जलधर सुन्दर देह।
पीत बसन पर दामिनी रेह।।”
विद्यापति ने नायक की सुन्दरता को अतुलनीय बताया है। उसका रूप-सौन्दर्य अपरूप है। माधव की सुन्दरता की उपमा देने के लिए प्रकृति के सारे उपमान ही कम पड जा रहे हैं।
“माधव कत तोर करब बड़ाई।
उपमा तोहर कहब ककरा हम कहि तहूँ अधिक लजाई।।”
विद्यापति के यहाँ प्रकृति का रूप बहुत ही कम देखने को मिलता है। विद्यापति ने प्रकृति को केवल नायिका की सहायता के लिए संकेत रूप में प्रस्तुत किया है। नायिका अभिसार के लिए जा रहा है। वह प्रकृति से निवेदन करते हुए कहती है-
“चंदा जनि उग आजुक राति। पिया के लिखिअ पथाओव पाँति।।
साओन सएँ हम करब पिरिति। जत अभिमत अभिसारक रीति।।”
विद्यापति की नायिका ‘राधा’ श्रीकृष्ण से मिलने के लिए केवल कृष्णाभिसारिका, शुक्लाभिसारिका ही नहीं बनती बल्कि पुरुष–वेष तक भी धारण करती है। विद्यापति के पदों में नायिका लम्बी तैयारी एवं दूती प्रसंग के साथ नायक से मिलने जाती है।
विद्यापति की दृष्टि भले ही सर्वप्रथम नायिका के स्तनों पर जाकर टिकती है लेकिन गौर करने की बात यह भी है कि वह प्रेम-सौन्दर्य के कवि होने के साथ-साथ अपने समय के सामन्ती व्यवस्था, समाज में फैली बुराईयों, विडम्बनाओं आदि को बड़ी ही सूक्ष्म दृष्टि से अपने पदों में चित्रित किया है। विद्यापति सामन्ती समाज में पले-बढे व्यक्ति हैं जो नारी के विचारों का वर्णन सूक्ष्मता से करने में निपुण हैं।
“जनम हवए जनु ज्यौ मुनि होय। युवति भयै जनमै जनु कोय।
होइएँ जुवति जनु होय रसवंतु। रसैव बुझयै जनु होव कुलमंतु।।”
विद्यापति समाज में व्याप्त किसी भी परम्परा का विरोध नहीं करते हैं। वह शैव भक्त होते हुए भी राधा-श्रीकृष्ण के माध्यम से मर्यादित स्त्री-पुरुष को अपने काव्य का विषय बनाया। विद्यापति के सौन्दर्य को बताते हुए सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी कहते हैं कि –“विद्यापति सौन्दर्य के द्रष्टा भी जबरदस्त थे और सौन्दर्य में तन्मय हो जाने की शक्ति भी उनमें अलौकिक थी।”









सन्दर्भ –ग्रन्थ :
1.प्रो.कृष्ण देव शर्मा                          विद्यापति और उनकी पदावली
अशोक प्रकाशन, नई सडक, दिल्ली -06
2. रामवृक्ष शर्मा बेनीपुरी                      विद्यापति पदावली
लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद 
3.नागार्जुन                                  विद्यापति के गीत
वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
4. कालिदास                                अभिज्ञानशाकुन्तल प्रथम सर्ग
5. विश्वनाथ त्रिपाठी                          हिंदी साहित्य का सरल इतिहास
                                          ओरियंट लांगमैन प्राइवेट लिमिटेड-2007
6.ओमप्रकाश सिंह                            प्रमुख हिंदी कवि और काव्य
                                          (आदिकाल और भक्तिकाल)
                                          ग्रन्थलोक, दिल्ली-32  



नाम - मन्जू कुमारी
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