विश्वशान्ति की अवधारणा–कबीर की दृष्टि में
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साहित्य जगत में संत
कबीरदास का अद्वितीय स्थान है। मध्यकाल में जन्में कबीर के जन्म और इनके माता-पिता
को लेकर काफी विवाद है। सर्वमत से यह स्वीकार किया गया है कि कबीरदास का जन्म सन्
1398 हुआ और इनका लालन-पालन मछुआरे के घर में हुआ, जो जाति से जुलाहा थे। कबीर के बारे में ऐसा कहा जाता है कि ये विधवा
ब्राह्मणी के पुत्र थे, जिसने लोक-लाज के भय से इन्हें काशी के लहरतारा ताल में
फेक दिया था। वहां से लाकर नीरू नामक जुलाहा ने कबीर का पालन-पोषण किया। इस प्रकार
कबीर का जन्म तो ब्राह्मण के घर हुआ, लेकिन पालन-पोषण जुलाहा के घर होने के कारण
कबीर भी जुलाहा कहलाये। कबीर की मृत्यु मगहर जिला बस्ती में सन् 1518 में हुई।
कबीर जिस समय और
समाज में पैदा हुए थे। वह दौर बहुत ही विसंगति भरा दौर था। समाज में तमाम तरह की
बुराईयाँ व्याप्त थी। कबीर ने समाज में व्याप्त सभी प्रकार की रूढ़िवादी मानसिकता
के विरूद्ध अपनी अटपटी भाषा में पूरे उतर भारत की जनता को जाग्रत कर उन्हें जीवन
जीने की राह दिखाई। कबीर अपनी वाणी के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को
धिक्कारते हुए हमेशा कडवी बातें किया करते थे। जिसके माध्यम से वह समाज में
व्याप्त तत्कालीन शासन व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था पर तीव्र आघात करते थे।
उस समय समाज में
व्याप्त धार्मिक ग्रंथों का जो बोलबाला था उसके असर को कम कर पाना इतना आसान काम
नहीं था, और न ही कबीर का कोई ऐसा मकसद ही था कि लोगों को उससे दूर करें। लेकिन
उनका प्रश्न यह था कि पुरोहित वर्ग के लोगों के दिमाग में यह बैठा दिया गया है कि इन
ग्रंथों को पढने मात्र से सारी भवबाधा को पार करके मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता
है। और दूसरी तरफ समाज में ऐसी क्या विडम्बना थी कि समाज के एक तबके को इसे
पढने-सुनने से वंचित कर दिया गया था। इतना ही नहीं उन्हें इन धार्मिक ग्रंथो को
समझने या कुछ विवेकपूर्ण ढंग से विचार करने के भी अयोग्य बना दिया गया। कबीर समाज
में व्याप्त ऐसी किसी भी अतार्किक बातों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते
थे, जिस कारण वह सामाजिक बुराईयों का खुलकर विरोध करते हुए नजर आते हैं। जीवन भर
समाज में व्याप्त वर्ण-व्यवस्था के शिकार कबीर और कबीर जैसे अन्य निर्गुण कवियों
के लिए यह स्वीकार नहीं था कि वे निम्न समझी जाने वाली जाति में उत्पन्न हुए हैं।
जिन्हें समाज में सबसे तुच्छ समझा जाता है जबकि वे भी अन्य लोगों की तरह ही मनुष्य
जाति की तरह इंसान हैं। कबीर कहते हैं –
“कबीर ऊँचे कुल क्या जनमियाँ , जे करनी ऊँच न होई।’
आगे कहते हैं –
‘कबीर घास न दीजिए, जो पाँऊ तालि होई।
उडि – पडै जे आँखि मैं, खरा दुहेला होई।।”
अर्थात कबीर समाज में सभी
के समानता के पक्षधर थे। वह सबको एक जैसा ही मानते थे। उनके अनुसार कोई भी
छोटा-बड़ा या व्यर्थ नहीं होती है। कबीर अपने समकालीन और पूर्ववर्ती सभी चिंतकों से
अलग और भिन्न इस अर्थ में थे कि वह जो कुछ भी गलत हो रहा हो देखते थे और उस पर वह
तुरंत बोल देते थे। अप्रिय सच कहने में उन्हें कभी हिचक नहीं हुई। इतना ही नहीं
उन्होंने समाज में व्याप्त मुस्लिम शासकों को धर्मान्धता के लिए फटकार लगाईं, और साथ
ही साथ हिन्दूओं को भी ऊँच- नीच, छुआछूत, और कर्मकांड आदि का भी विरोध किया। कबीर
की यही दृष्टि और विचारधारा उन्हें समाज-सुधारक के रूप में प्रतिष्ठित करती है। वह
कहते हैं कि-
“सोहं हंसा एक समान
काया के गुन आनहिं आन।
माटी एक सकल संसारा बहु बिध भोड़े धडै कुम्हारा।।”
हमारे भारतीय समाज
में प्राचीनकाल से ही जो व्यवस्था विकसित हुई, वह सामाजिक न्याय की ओर नहीं जाती
थी। इस समाज में अनेक भेदभाव थे जो व्यक्ति के जन्म वर्ण, जाति, नस्ल, लिंग पर
आधारित थे।
“यहु ऎसा संसार है, जैसा सैबल फूल।
दिन दस के ब्यौहार कौं, झूठै रंगि न भूल॥”
अर्थात् यह विचित्र संसार सेमल के फूल की तरह है, जो हवा के एक हल्के झोंके से बिखर जाऎगा। हे मनुष्य इस संसार में आपने दस दिनों की जिन्दगी जरूर प्राप्त कर ली है, माया-मोह का व्यवहार भी जी लिया है, भोगमय जीवन से सम्बंध भी कायम कर लिया है, मगर आपको यह भूलना नहीं चाहिए कि इस संसार की रंगत, चकाचौध झूठी है, व्यर्थ है। किसी को इस भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए की दुनिया का यह रंग स्थायी है। कबीर अपने समाज को लेकर बहुत अधिक सजग और सतर्क रहे हैं। कबीर का समाज केवल उनके कुल-परिवार-जाति तथा उनके आस-पास के परिवेश तक ही सीमित न रहकर सम्पूर्ण मानव-जाति से सम्बद्ध रहा है। इसलिए वे समस्त सांसारिक जनों को संबोधित करते हुए कहते हैं-
कबीर कहा गरबियौं, काल गहै कर केस।
नां जांणौं कहां मारिसी, कै घरि कै परदेश॥
कबीर एक क्रांतिकारी और युगद्रष्टा के रूप में सम्पूर्ण भारतीय समाज में विख्यात हैं। अपने इसी स्वाभाव के बल पर इन्होंने समाज में व्याप्त तमाम तरह की बुराईयों का खण्डन किया । वह चाहे धार्मिक पाखण्ड से जुडी रही हो या फिर व्यवहारिक जीवन में व्याप्त कुसंगति, कपट या घमण्ड़ रहा हो, सबका उन्होंने खुलकर विरोध किया।
कबीर समाज के प्रति बहुत गहरी मानवीयता और सहृदयता के गुणों से युक्त थे। कबीरवाणी में दो रूपों के दर्शन होते हैं। पहला- रचनात्मक पक्ष– (सतगुरू, नाम, विश्वास, धैर्य, दया, विचार, औदार्य, क्षमा, संतोष आदि) विषयों पर व्यावहारिक शैली में भाव व्यक्त हुआ है। दूसरा आलोचनात्मक पक्ष है- यहां कबीर आलोचक, सुधारक, पथ-प्रदर्शक और समन्वयकर्त्ता के रूप में सामने आते हैं। जिसमें हमें विश्वशान्ति की झलक देखने को मिलती है। विश्वशान्ति के लिए कबीर ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। उनके हुंकार की गूंज आज भी संसार में व्याप्त है।
हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलैं ज्यूं घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास॥
लेकिन कबीर आज भी उदास है क्योंकि उसे समाज में 600 साल बाद भी कोई विशेष परिवर्तन देखने को नही मिलता। संसार आज भी उसी मोह माया में फंसा हुआ है, जहां से वह आज भी निकल नही पा रहा है। ऎसे विपरीत समय में सम्पूर्ण मानव-जाति के लिए ’कबीर’ रोशनी की किरण के समान हमारे समाने हैं, हमें इनके उपदेश को पढ़ने, समझने और जीवन में धारण करने की जरूरत है।
कबीरदास सभी बाह्य
आडम्बर और पाखण्ड के विरूद्ध थे। इसलिए वह राम और रहीम मुल्ला और पांडे का भेद
नहीं मानते थे। कबीर कहते हैं –
“मूड मुड़ाए हरि
मिले, सब कोई लेइ मुडाय।
बार-बार के मुड़े ते,
भेड़ न वैकुण्ड जाय।।
पूजा, सेवा, नेम, व्रत, गुडियन का सा खेल।
जब लग पिऊ परसे नहीं, तब लग संशय मेल।।“
कबीर ‘प्रेम’ को अपने
जीवन का मूल मंत्र मानते हैं। उनके अनुसार मानव का धर्म वहीँ है जो मनुष्य को
मनुष्य समझता है और लोगों के आपसी प्रेम-भावना को वरीयता देता है। वह प्रेम की महिमा
का गुणगान करते हुए थकते नहीं हैं-
“यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहि।
सीस उतारे भुई धरे,
तब पैठे घर माहिं।।”
कबीरदास अहिंसा के पुजारी
थे। उनका मानना था कि संसार के छोटे-बड़े सभी तरह के जीव परमात्मा द्वारा बनाए गए
हैं। इन सभी जीवों के प्रति दया और करूणा का भाव होना चाहिए। कबीर हिंसा करने वाले
से घृणा करते हैं और अहिंसक वैष्णव धर्म के अनुयायों से प्रेम करते थे। कबीर के
अनुसार प्रेम कोई दिखावे की चीज नहीं है और न ही उसे पैसों से ही ख़रीदा जा सकता
सकता है। सच्चे समर्पण के भाव से ही प्रेम की उत्पत्ति होती है और अन्दर से प्रेम
को महसूस कर पाते हैं –
प्रेम न खेती उपजै
प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जिस रुचै सिर
दै सो लै जाय।।
कबीर अपनी इसी सर्व-व्यापी
प्रेम की भावना की वजह से समाज में व्याप्त छुआ-छूट ,जाति-पात, उंच-नीच और
हिन्दू-मुसलमान के भेदभाव को कोई महत्त्व नहीं देते हैं। कबीर की नजर में मनुष्य
मात्र का महत्त्व मुख्य स्थान रखता है, वह व्यक्ति जो भी हो, जैसा भी हो। कबीर की
वाणी हमेशा समाज को नयी दिशा और नई दृष्टि देने का काम करती रही है और आज भी समाज
में कबीर के पद तुलसी के पदों की तरह लोगों की जुबान पर छाये हुए हैं। सामाजिक
विसंगतियों पर उन्होंने हमेशा तीखा प्रहार किया है। कबीर ज्ञान की प्राप्ति को
ज्यादा महत्व देते हैं। उनके अनुसार मनुष्य को कभी भी गर्व नहीं करना चाहिए। ज्ञान
जहाँ से भी मिले उसे सहज भाव से स्वीकार कर लेना चाहिए।
“जाति न पूछों साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार की,
पड़ा रहन दो म्यान।।
संत न छोडै संतई, कोटिक मिले असंत।
मलय, भुवंगहि बधिया, शीतलता न तजंत।।”
संत कबीर निर्गुण भक्ति
साखा के प्रमुख कवियों में से हैं। ये समाज में व्याप्त रूढ़िवादी मानसिकता को दूर
कर निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना को महत्त्व देते हैं।
कबीर की भक्ति-भावना : भक्ति शब्द
‘भज्’ सेवायाम् धातु में ‘क्तिन्’ प्रत्यय लगाकर बनाया गया है, जिसका अर्थ भगवान
का सेवा प्रकार, सांडिल्य भक्ति सूत्र में ईश्वर में परम अनुरक्त को भक्ति माना है।
- ‘सा परानुरक्त व्रतस्वरे।’ नारद भक्ति सूत्र में – ‘भक्ति ईश्वर के प्रति परम
प्रेमरूपा भक्ति को पाकर मनुष्य तृप्त हो जाता है, सिद्ध हो जाता है और अमर हो
जाता है। जिस भक्ति के प्राप्त होने पर मनुष्य न किसी वस्तु की इच्छा करता है, न
शोक करता है, और न किसी वस्तु में आसक्त होता है। विषय भोगों के प्रति उसको कोई
उत्साह नहीं रहता और आत्मानंद के साक्षात्कार से वह संसार के विषयों से निपेक्ष
होकर मस्त रहता है। महाप्रभु बल्लभाचार्य ने कहा है कि- ‘भगवान में महात्मपूर्वक
सुदृढ़ और सतत् स्नेह ही भक्ति है।’ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि
“कबीर की वाणी वह लता है जो योग के क्षेत्र में भक्ति का बीज बोने से अंकुरित हुई
है।” अर्थात कबीरदास उस लता के समान हैं जिसने ‘योग’ यानी नाथ पंथ की विकृतियों और
आडम्बरों को दूर करके भक्ति-भावना को प्रस्फुटित किया।
कबीरदास का यह मानना है कि प्रभु की
भक्ति एक ऐसी साधना है जो हमें तमाम तरह के सांसारिक बन्धनों से मुक्ति दिलाकर
ब्रह्म का साक्षात्कार करा सकती है। कबीरदास की भक्ति ‘माधुर्य भाव’ की है।
माधुर्य भाव की भक्ति को मधुरा या प्रेम भाव की भक्ति की संज्ञा दी जाती है। इससे
भक्त स्वयं को जीवात्मा और ईश्वर को परमात्मा मानकर दाम्पत्य प्रेमभाव से भक्ति
करता है। कबीर की भक्ति में विरह भावना स्पष्ट रूप से दृष्टि गोचर होती है। कबीर
की भावना अपने निर्गुण ब्रह्म से मिलने के लिए बेचैन रहती है। जीवात्मा परमात्मा से मिलने का इन्तजार करती है।
“बहुत दिनन से जोहती, बाट तुम्हारी राम।
जिव तरसे तुझ मिलन को, मति नांहि बिश्राम।।”
उसी तरह कबीरदास दाम्पत्य भाव से ईश्वर की भक्ति के द्वारा स्वयं को पत्नी
भाव से मिलन की कामना करते हैं –
“दुलहिन गावो मंगलाचार।
हमरे घर आए राम भरतार।
तन रति कर मैं मन रति करिहौं पाँचों तत्व बराती।
रामदेव मोहिं ब्याहन ऐहैं मैं जोबन मदमाती।।”
कबीर का समाज कबीर के कुल घर-परिवार या उनके आस-पास के परिवेश से ही सम्बद्ध
नहीं है, बल्कि सम्पूर्ण मानव-जाति से सम्बद्ध है। कबीर ने सम्पूर्ण मानव–जाति को
केंद्र में रखकर विश्वशांति के लिए अपनी चिंता प्रकट की है। कबीर समाज में फैली
बुराईयों को दूर करने और मानव-जाति के विकास को लेकर अपनी पीड़ा और बेचैनी का प्रकट
करते हैं।
कबीर ईश्वर की पूजा-अर्चना की बात तो करते हैं लेकिन ईश्वर भक्ति के लिए योग
साधना, कर्मकाण्ड, की अवहेलना भी करते हैं। उनके अनुसार भक्त को संसार के प्रति
विरक्त भाव से अपने अन्दर ईश्वर भक्ति की ज्योति जलानी चाहिए। यहाँ पर कबीर के
विरक्त भाव का तात्पर्य यह नहीं है कि संसार का सब कुछ छोड़कर जंगल में जाकर तपस्या
करो, बल्कि संसार में रहते हुए भी मन में संतोष, विषय भोगों के प्रति अनासक्त
होना, किसी भी प्रकार की आशा-तृष्णा से मुक्त होना ही विरक्त का भाव है। जब कोई भक्त भगवान् के प्रति सहज भाव से पूरी
तरह उनकी भक्ति में लीन हो जाता है, तब उसके अन्दर सांसारिक विषयों के प्रति
विरक्त का भाव स्वत: जाग्रत हो जाता है। क्योंकि इच्छाएँ कभी नहीं मरती हैं, वह
हमारी जन्म-जन्मान्तर तक पीछा करती रहती हैं –
“माया मरी न मन मुआ मरि-मरि जात सरीर।
आसा त्रिस्ना ना मरी सो कहि गए दास कबीर।।”
कबीरदास समाज के व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार करते हुए निर्गुण प्रेम–भक्ति
के मार्ग को सहजता से लोगों को बताने की कोशिश करते हैं। वह प्रेम को ही साध्य और
साधन दोनों मानते हैं। कबीर समाज के उन ब्राहमण पंडितों पर व्यंग्य करने से नहीं
चूकते थे, जो ग्रन्थ-ज्ञान को केवल अपने तक ही रखते थे। इतना ही नहीं धार्मिक
ग्रंथों का ज्ञान होने पर भी उसे लोगों के कल्याण या अपने व्यवहार में न लाकर
ज्ञान को एक सीमित दायरे में बंद करके रखना चाहते हैं। उनकी तीखी आलोचना करते हुए
कहते हैं कि-
“पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ,
पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पण्डित होय।।”
इस प्रकार हम देखते हैं कि कबीरदास पढ़े–लिखे न
होते हुए भी अपनी भक्ति-साधना से सम्पूर्ण विश्व को ज्ञान का उपदेश दिया है। कबीर
का समाज तमाम तरह की बुराईयों से जकड़ा हुआ था। ऐसे विपरीत समय में कबीर का
प्रादुर्भाव किसी चमत्कार से कम न था। कबीर ने हमेशा जो देखा, जैसा देखा उसका अपने
अक्खड़ अंदाज में उस पर उसी तरह अपनी सहमती-असहमति जाहिर करने से कभी चूकते नहीं थे।
कबीर ने अपने भक्ति भावना और सामाजिक दृष्टि से समाज में व्याप्त बुराईयों का जमकर
विरोध किया। कबीर का काव्य हमें दिशा–निर्देश
देते हुए, भविष्य की ओर अग्रसर ही नहीं करता बल्कि पूरे विश्व में शान्ति को बनाए
रखने की अवधारणा भी पेश करता है।
(कबीर ग्रंथावली-
सं. डॉ श्यामसुन्दरदास-नागरी प्रचारणी सभा-वाराणसी, सं-13)
गुरु देव कौ अंग :
(1) पीछे लागा जाइ था,
लोक वेद के साथि।
आगें थैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि।।(11)
(2) चौसठि दीवा जोइ करि,
चौदह चंदा मांहि।
तिहिं घरि किसकौ
चानिराणौं, जिहि घरि गोबिंद नांहि।।(17)
सुमिरण काउ अंग :
(3) कबीर सुमिरण सार है,
और सकल जंजाल।
आदि अंति सब सोधिया, दूजा देखौं काल।। (5)
(4) जिहि घटि प्रीति न
प्रेम रस, फुनि इसना नहीं राम।
ते नर इस संसार में,
उपजि षये बेकाम।।(17)
बिरह कौ अंग :
(5) यहु तन जालौं मसि
करूँ, ज्यूं धुवां जाइ सरग्गि।
मति वै राम दया करैं, बरसि बुझावै अग्गि।।(11)
परचा कौ अंग :
(6) प्यंजर प्रेम
प्रकासिया, अंतरि भया उजास।
मुख कस्तूरी महमही, वांणी फूटी बास।।(14)
चितावणी कौ अंग :
(7) यहु ऐसा संसार है,
जैसा सैंबल फूल।
दिन दस के व्यौहार
कौं, झूठै रंगि न भूलि।।(13)
माया कौ अंग :
(8) माया तजी तौ का भया,
मानि तजी नहीं जाय।
मानि बड़े मुनियर
गिले, मानि सबनि कौं खाइ।।(17)
कुसंगति कौ अंग:
(9) मूरिष संग न कीजिए,
लोहा जलि न तिराइ।
कदली सीप भवंग मुषी, एक बूँद तिहुं भाइ।।(2)
संगति कौ अंग :
(10)
देखा देखी भगति है, कदे न चढ़ई रंग।
बिपति पढ्या यूँ छाड़सी, ज्यूँ कंचुली
भवंग।।(2)
उपदेश कौ अंग :
(11)
हरि जी यहै बिचारिया, साषी कहौ कबीर।
भौसागर मैं जीव है, जे कोइ पकडै तीर।।(1)
बेसास कौ अंग :
(12)
करम
करिमाँ लिखि रह्या, अब कछू लिख्या न जाइ।
मासा घट न तिल बंधै, जौ कोटिक करै उपाइ।।(7)
जीवन मृतक कौ अंग :
(13)
खरी कसौटी राँम की, खोटा टिकै न कोइ।
राम कसौटी सो टिकै, जौ जीवन मृतक होइ।।(9)
सूरा तन कौ अंग :
(14)
कबीर निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाघ।
सीस उतारै पग तलि धरै, तब निकटि
प्रेम का स्वाद।।(20)
काल कौ अंग :
(15)
झूठे सुख कौं सुख कहै, मानत है मन मोद।
खलक चबीणां काल का, कुछ मुख मैं कुछ
गोद।।(1)
कस्तूरियाँ मृग को
अंग :
(16)
कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढे बन मांहि।
ऐसै घटि- घटि राम हैं, दुनियां देखैं
नांहि।।(1)
पदावली :
(17)
काहे री नलनी तूँ कुम्हिलांनी,
तेरे ही नालि सरोवर पांनी।।
जल मैं उतपति जल में बास, जल मैं
नलनी तोर निवास।।
ना तलि तपति न ऊपरि आगि, तोर हेतु
कहु कासनि लागि।।
कहै कबीर जे उदित समान, ते नहीं मूए
हंमरें जान।।(64)
(18)
अब का
डरौ डर डरहि समाँनाँ
जब थैं भोर तोर पहिचानां।।
जब लग मोर तोर करि लीन्हां, भै भै
जनमि जनमि दुःख दीन्हा।।
अगम निगम एक करि जाँनाँ, ते मनवां मन
मांहि समाना।।
जब लग ऊँच नीच करि जाँनाँ, ते पसुवा
भूले भ्रम नाँनाँ।
कहि कबीर मैं मेरी खोई, तबहि रांम अवर नहीं
कोई।।(66)
(19)
जौ मैं ग्यांन बिचार न पाया
तौ
मैं यौ हीं जन्म गंवाया।।
यहु
संसार हाट करि जाँनूँ, सबको बणिजण आया।
चेति सकै सो चेतौ रे भाई, मूरख मूल गवायाँ।।
थाके नेंन बैन भी थार्क, थाकी सुन्दर काया।
जांमण मरण ए द्वै थाके, एक न थाली माया।।
चेति- चेति मेरे मन चंचल, जब लग घट मैं सासा।
भगति जाव परभाव न जइयौ, हरि के चरन
निवासा।।
जे जन जांनि जपें जीवन,तिनके ग्यान न
नासा।
कहै कबीर वै कबहूँ न हारैं, जांनि न
ढारै पासा।।(235)
संदर्भ-ग्रन्थ :
1.सं.डॉ.
श्यामसुंदर दास कबीर ग्रंथावली
नागरीप्रचारिणी
सभा, वाराणसी, तेरहवाँ संस्करण
2. आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी कबीर
राजकमल
प्रकाशन, नई-दिल्ली
3.
सं. नित्यानंद पाण्डेय/ डॉ. हेमराज मीणा संत कबीर :आधुनिक संदर्भ (प्रथम खंड)
केन्द्रीय हिंदी संस्थान,आगरा, प्रथम सं.-2013
4.
सं. बलदेव वंशी पूरा
कबीर
प्रकाशन
संस्थान,नई दिल्ली-110002
5.
विश्वनाथ त्रिपाठी हिंदी
साहित्य का सरल इतिहास
ओरियंट
लांगमैन प्राइवेट लिमिटेड -2007
नाम - मन्जू कुमारी
पता - गोदावरी छात्रावास
कमरा न.- 265,जे.एन.यू नई-दिल्ली-110067
मो. 9871593794
nice chants
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