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Friday, January 19, 2018

हिन्दी दलित काव्य संवेदना [Hindi dalit kavya samvedana]

January 19, 2018 0 Comments


हिन्दी दलित काव्य संवेदना



पारलौकिक जगत की काव्य संवेदना को,
लौकिकयथार्थजगत पर उतारती हैं दलित कविताएं
कल्पना की दुनिया में नहीं,
यथार्थ जगत का चित्र दिखलाती हैं दलित कवितएं
समाज से ब्राह्मण पंडितों को नहीं,
समाज से जातिवाद, वर्णव्यवस्था को मिटा देना चाहती हैं दलित कविताएं
समाज में ऊंच- नीच नहीं,
सबको समता और सम्मान से जीने का हक,
दिलाना चाहती हैं दलित कविताएं
समाज में फैली रोशनी को नहीं,
अंधेरे को मिटा देना चाहती है दलित कविताएं
अब चुकी है दलितों में भी  चेतना,
उस चेतना की झलक दिखलाती हैं दलित कविताएं
मन्जू कुमारी

 दलित कविताओं में चेतना का संचार अम्बेडकर एवं फूले की विचारधारा की देन है। जिसमें हजारों सालो के दंश,भोगे हुएं यथार्थ जीवन की अभिव्यक्ति, का चित्रण हुआ है। दलित कविताएं यथार्थ अभिव्यक्ति के साथ-साथ समाज में फैली तमाम विसंगतियों को चेतावनी देती हुई नज़र आती हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसारकविता का मुख्य उद्देश्य जगत के मार्मिक पक्षों का प्रत्यक्षीकरण कर उसका मानव ह्रदय के साथ सामन्जस्य स्थापन । दलित कविताएं भी मानव ह्र्दय के साथ सामन्जस्य स्थापित करवाने का काम करती हैं।
दलितयानी समाज के द्वारा शोषित, प्रताडित ,अधिकारों  से बंचित ,और जो मानवमुक्ति के लिए आदिकाल से ही किसी किसी रुप में परिवर्तन के लिए प्रयासरत रहा है । वैसे देखा जाय तो यह परम्परा बुध्द,सरहपा,संत कबीर,रविदास,महात्मा फूले ,अम्बेडकर  से होते हुए अनवरत अग्रसर है। एक तरफ रैदास कहते हैं कि-

रैदास वामन मत पूजिये ,जऊ होवे गुन छीन
पूजहिं चरन चांडाल के,जऊ होवे गुन प्रवीन
इसी के समानान्तर  ही कबीरदास कहते है कि-
कैसे हिन्दू तुरक कहाया
सब ही एकै द्वारे आया
कैसे ब्राह्मण कैसे सूद्र ,
एक हाड चाम एक गूद पृष्ठ सं.11,11
 आधुनिक दलित साहित्य का आरम्भ १९१४ में प्रकाशित हीराडोम की कविताअछूत की शिकायत  ” से माना जाता है ।आधुनिक काव्य की विभिन्न धाराओं के कवियों ने भी दलितों की संवेदनाओं,वेदनाओं, को गहरी सहानुभूति के साथ उकेरने का प्रयास किया है। बींसवी सदी की शुरूआत में उत्तर भारत में स्वामी अछूतानन्द हरिहर ने दलित जागरण को सशक्त किया  इन्हें आधुनिक  दलित साहित्य का जनक भी माना जाता है। कुछ पंक्तिया है जिसे वो अकसर सभा में बोलते थे-
सभ्य सबसे हिन्द के प्राचीन हकदार हम,
था बनाया शूद्र हमको,थे कभी सरदार हम,
अब नहीं है वह जमाना,जुल्म हरिहर मत सहो,
तोंड दो जंजीर, जकडे क्यों गुलामी में रहो ?
                         
दलित कविता में निराशा और हताशा ही नहीं, अपितु आशा और उत्साह के पात्र भी मिलते है ।श्यौराज सिंह बेचैन  अपनी कविता में साथियों को निडर होकर आगे आने के लिए प्रेरित करते हुए कहते हैं-
नया सबेरा दस्तक देगा,द्वार-द्वार पर हर कुटिया के ,
उठो साथियों जंग छिडी है,उजियाले की अंधियारे से
जाग उठा है सुप्त जमाना, परिवर्तन के पंख खुले हैं,
शोषण और दमन के पंजे क्षीण हुए हैं,टूट चुके हैं पृष्ठ सं-23
                         
दलित कवि और लेखक  ओमप्रकाश बाल्मीकि की कविताओं में काव्य संवेदना की बात करे तो बहुत खूबसूरती से भाषा-शिल्प के माध्यम से अपने यथार्थ समाज की सहज एवं जीवन्त दृश्य  को कविता में पिरोने का काम किया है ।बाल्मीकि का अभी तक चार संग्रह चुका है। जिसमें क्रमश दलित     काव्य चेतना में विकास देखने को मिलता है।
1.संदियों का संताप          2.बस बहुत हो चुका
3.अब और नहीं                4.शब्द झूठ नहीं बोलते
                        
ये कविताएं परिवर्तनशील नयी दुनिया एवं नये सौन्दर्यशास्त्र की मांग करती हैं। बाल्मीकि की कविताओं  में ठाकुर का कुआं, शायद आप जानते हो, वे भूखे हैं, पेड़, ये सभी कविताएं  एक अलग तरह की संवेदना की बात करती हैं। शायद आप जानते हो।यह कविता भारतीय सभ्यता और संस्कृति का परिचय कराती है जिसमें हिन्दी क्षेत्र के आलोचकों का चेहरा दिखाते हैं-
अर्थ बदलकर शब्दों के,
गढ़ लेना असंख्य प्रतीक
ऋग्वेद के कृष्ण को
महाभारत में फिट करके,
हो जाना आत्मविभोर
सो जाना गहरी नींद में,
देख नहीं पाना सपनों में॥
       
 दलित वर्ग यह प्रश्न करता है कि सब कुछ सवर्णो का ही है, तो हमारा क्या है। अर्थात हमारी समाज में इयत्ता क्या है। जबकि हमारे ही बल पर आज सवर्णो के चेहरे पर हंसी है ।
कुआं ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या ?” पृष्ठ सं.56
                      
सी.बी. भारती की कविताजोंकहै ।जो सवर्णों के प्रतीक  के रूप में आई है। भारतीय समाज की संरचना, व्यवस्था के जो संचालक  हैं, वही श्रमशील मजदूर वर्ग के लोगों का खून चूसते हैं।कविता का शीर्षक जोंक इन्हीं शोषक वर्ग का प्रतीक है। क्योंकि जो श्रमशील वर्ग है उन्हें अभी अपनी गुलामी का एहसास नहीं है। जिस दिन इस दबे हुए वर्ग को अपनी गुलामी का एहसास हो जएगा, उसे अपनी चेतना का भी एहसास हो जाएगा तब वह वर्ग उस जोंक को जरुर मसल देगा।यह कविता इसी तरफ़ इशारा करती है।
जोंक जानती है सिर्फ़,औरों का खून चूसना,
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मगर जोंक नहीं जनती-कि एक दिन,
उसका शिकार जरुर बिलबिलएगा,
दर्द जब सहा जएगा और खून घटता जएगा,
तब जरूर वह गुस्साएगा
और मसल दी जऎगी जोंक ,तब जोंक नहीं जानती पृष्ठ सं 25
                       
दलित कवि मलखान सिंह हैं। जिन्होंने दलितों के जीवन से जुड़ी बहुत सी कवितएं लिखी हैं। मलखान सिंह अपनी कविताओं में ब्राह्मणवादी व्यवस्था को सीधे चुनौती देते हैं ।इनकी कवितासुनों ब्राह्मण में देखा जा सकता है। दलित साहित्य पर यह आक्षेप लगता रहा है कि दलित साहित्य अतीतजीवी है, क्योंकि यह केवल अतीत की ही बात करता है। जबकि ऎसा नहीं है जिन समस्याओं,शोषित, प्रताडित व्यवस्था, वर्ण जाति के प्रकोप की बात दलित साहित्य करता है। वह व्यवस्था समाज में आज भी विदमान है बस उसका रूप थोड़ा बदल जरूर गाया है। मलखान सिंह की कविता का स्वर है कि अगर समाज में वर्ण व्यवस्था बनी होती तो आज हमारी  यह दशा हुई होती जिसने हमें गलत काम करने के लिए  बाध्य किया ,उन्हीं को हमारा काम गलत भौड़ा किस्म का लगता है।
हमारी दासता का सफ़र,तुम्हारे जन्म से शुरू होता है।
और इसका अन्त भी तुम्हारे अन्त के साथ होगा॥
सुनो ब्राह्मण हमारे पसीने से ,बू आती है तुम्हें।
फिर ऎसा करो एक दिन ,अपनी जनानी को,
हमारी जनानी के साथ मैला कमाने भेजो।पृष्ठ सं.48
                    
सुशीला टाक भौरे- जो दलित लेखिका हैं इनकी कविताएं-सपने सज जायेंगे,पंख मेरे फड़फडाते हैं, लौट जाओं तुम ,गाली, स्त्री, विद्रोहिणी, बुध्दिवादी चिन्तन इनकी कविताएं  बरसों से बंधी दिवारों से , गुलामी से निकल जाने की हुंकार भरती हैं।
शोषितों के मर्म को, पीड़ितों के दर्द को।
चीत्कार को हुंकार में,मैं बदल देना चाहती हूं।
पंख मेरे फड़फड़ाते हैं
इसी प्रकार -लौट जाओ तुममें भी व्यवस्था के प्रति कहती हैं-
वर्ण व्यवस्था के  समर्थक ,
जातिवाद के हिमायती,
नहीं चलेगा अब तुम्हारा फरमान॥
                  
  पुरूष प्रधान समाज में स्त्री की अस्मिता ,उसकी स्थिति, वास्तव में दोहरे अभिशाप में कट रही है। सुशीला जी अपनी कवितागाली”  में स्त्री की स्थिति को रेखांकित करती हैं-
पुरूष प्रधान समाज में, चाहे समर्पण हो या विद्रोह,
दुर्गुण का दोष नारी पर है,पुरूष के दुर्गुण पर हमेशा,
मनुनाम की , चादर डाली जाती है
                   
 इस कविता में मनुवादी व्यवस्था और पुरूष की महत्ता पर व्यंग्य है। स्त्री को निरीह, अबला नारी समझते हैं क्यों?  क्योंकि वह स्त्री है। पुरूष के सौ खून मांफ है क्योंकि वह एक पुरूष है। प्रस्तुत कविता में लेखिका नारी को शोषण की दुनिया से मुक्त कराना चाहती है।दलित वर्ग व्यवस्था को लेकर जो मिथक गढ़ दिये गए हैं उन सभी व्यवस्था को बदल देना चाहती है
                  
सूरजपाल चौहान एक दलित कवि हैं,जिनकी कविताओं में अम्बेडकर का प्रभाव प्रत्यक्ष-अप्रत्क्षय दोनों रूपों में देखने को मिलता है।प्रयासकाव्यसंग्रह से कविता है-
कर्महीन पण्डित पुजते हैं,उनका होता आदर मान,
पढ़े लिखे विद्वान भले हो,शूद्रों का होता    अपमान,
वाह रे!     वाह मेरे हिन्दुस्तान॥     पृष्ठ सं. 112
                  
इस कविता में व्यंग्य की धार बहुत तेज है  डॉ.जय प्रकाश कर्दम-की कविताएं भी दलित चेतना से युक्त हैं। वो बिना किसी लाग-लपत के सीधी सपाट शैली में कहते हैं-
झूठे हैं वे लोग, जो कहते हैं,
कि देश में जातिवाद आखिरी सांस ले रहा है।
धोखेबाज हैं वे लोग जो कहते हैं,
कि अस्पृश्यता का जनाजा निकल चुका है।
मक्कार हैं वे लोग जो कहते हैं
कि वर्णव्यवस्था अप्रासंगिक हो चुकी है।
जब तक स्मृतियां रहेगी,रामायण,गीता,और वेद रहेंगे,
तब तक वर्ण शुचिता रहेगी                      पृष्ठ सं-49
सुशीला टाकभौरेविद्रोहिणीकविता में दलित आकांक्षा को व्यक्त करती हुई कहती हैं-

मुझे अनंत असीम दिगन्त चाहिए,छत का खुला आसमान नहीं।
आसमान की खुली छत चाहिए,मुझे अनंत आसमान चाहिए॥
     
अत: यह कह सकते है कि हिंदी दलित कविताएं जिस तेवर को लेकर चल रही हैं, वह बहुत ही स्वाभाविक और जीवन्त है। क्योंकि दलित कविताएं यथार्थ जीवन के आह की कविताएं हैं  वाह की नहीं।जाति वर्ण व्यवस्था का दर्द कवियों को बार-बार पीड़ा का एहसास कराता है। वर्तमान समय में सामाजिक स्थितियों में थोड़ा सुधार जरूर हुआ है लेकिन आज भी निचले तबके के लोग पिसते नजर रहे हैं। दलित कविता में विद्रोह, नकार, संघर्ष,वर्ण ,जाति, ऊच-नीच, भेदभाव, तथा तमाम तरह की असमानताओं को दर्शाया गया है। ये कविताएं समाज में असमानता का नहीं, समानता का संदेश देती नजर आती हैं।      


संदर्भ- ग्रन्थ:
1.कॅवल भारती                                                  दलित विमर्श की भूमिका
                                                                         इतिहासबोध प्रकाशन -2004
2. संपादक : डॉ.जयप्रकाश कर्दम -                                दलित साहित्य-2011 वार्षिकी
3.शोध छात्रा-रजत रानीमीनू” -                              नवें दशक की हिंदी दलित कविता 
पृष्ठ सं-49,112                                                 भारतीय भाषा केन्द्र जे. एन.यू.
पृष्ठ सं-23
पृष्ठ सं.11,11
दलित निर्वाचित कविताएं
बाल्मीकि की कविताएं-
1.शायद आप जानते हो-
2.ठाकुर का कुऑ- पृष्ठ सं.56
सी.बी.भारती की कविता1.    जोंक- पृष्ठ सं 25
मलखान सिंह- 2.      सुनों ब्राह्मण- पृष्ठ सं.48                                                                         
                                                                                      नाम-मन्जू कुमारी                
                                                                          पता- 265, गोदावरी हॉस्टल,             
                                                                    जे.एन.यू. नई दिल्ली-110067