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Friday, January 19, 2018

The Changing Image of modern women in society and Hindi cinema

January 19, 2018 0 Comments



‘समाज में बदलती आधुनिक स्त्री की छवि और हिंदी सिनेमा’
The Changing Image of modern women in society and Hindi cinema
(क्वीन फिल्म के विशेष सम्बन्ध में)


क्वीन फिल्म के निर्देशक ‘विकास बहल’ ने एक महिला प्रधान फिल्म में पूरा मनोरंजन करते हुए बेहतरीन सन्देश देने की कोशिश की है। फिल्म की कहानी दिल्ली के राजौरी गार्डन की रानी कंगना रानौत की है। फिल्म शुरू होती है दो दृश्यों के साथ एक तरफ धूम-धाम, शादी-विवाह की तैयारी, घर में ख़ुशी का माहौल और दूसरी तरफ शादी से पहले लड़की के अंतर्मन में चलने वाली अत्याधिक ख़ुशी, डर और घबराहट की कलकल-छलछल  उमंग भरी लहरों के साथ | जिसमें दो दिन बाद विजय (राजकुमार राव) से उसकी शादी होने वाली होती है। लेकिन शादी से दो दिन पहले विजय उससे बताता है कि वह उससे शादी नहीं कर सकता है। रानी को इस बात का झटका लगता है, और अचानक फिल्म में ख़ुशी और रौनक भरी धुन की लय मर्शिया में बदल जाती है | लेकिन रानी को अपने से ज्यादा परिवार, समाज की चिंता होती है कि लोग क्या सोचेंगे? शादी टूटने के बाद अब उससे कौन शादी करेगा?
फिल्म की मुख्य चरित्र रानी की रानी से ‘क्वीन’ बनने तक की यात्रा हमें फिल्म में स्त्री के विकास क्रम को दिखाती है। फिल्म में घबराने वाली और नर्वस रहने वाली रानी के अन्दर धीरे-धीरे आत्मविश्वास आने लगता है। ‘क्वीन मूवी’ में एक समझदार और गंभीर लड़की का ‘कैरेक्टर प्ले’ किया गया है। जिसमें हमें समाज में बदलती आधुनिक स्त्री की स्पष्ट झलक देखने को मिलती है। रानी का चरित्र कहीं से हमें हमारे समाज का चरित्र न हो, ऐसा नहीं लगता। रानी दिल टूटने के बाद बहुत दु:खी होती है, रोती है, बहुत दिनों तक विजय के आने या उसके फोन के आने का इंतजार भी करती है। लेकिन वह हिम्मत नहीं हारती है और न ही वह अपने आपको किस्मत की मारी समझ कर आंसू बहाती रहती है या रोती-गाती फिरती है। विजय के शादी करने से मनाकर देने के बाद उसे स्वयं के होने का अहसास होता है और तब वह अपने वजूद को समझ पाती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि वह रानी जो कभी अपने ही शहर में अकेले बाज़ार भी नहीं गयी थी, वह अकेले पैरिस जाने का निश्चय करती है।
हमारे भारतीय समाज में लड़कियों और स्त्रियों को बहुत ही सुरक्षित माहौल में रखने की पूरी कोशिश की जाती है, यह जितना सही है उससे ज्यादा कहीं न कहीं एक स्त्री के मानसिक विकास में बाधक भी है। एक लड़की बचपन से ही बंधन में रहकर धीरे-धीरे उस बंधन को बंधन कम प्यार ज्यादा समझने लगती है, जिस कारण वह बंधन को सहजता से स्वीकार कर खुश रहने लगती  है। जैसा कि रानी के परिवार में भी ऐसा ही होता है। वह जहाँ भी जाती है उसका भाई उसके साथ-साथ जाता है। जिस कारण कहीं न कहीं उसकी स्वतंत्रता प्रभावित होती जाती है और उसका व्यक्तित्व कहीं न कहीं पूरी तरह से निखर नहीं पाता है। लेकिन विदेशी परिवेश पैरिस में वही रानी जो अकेले घर से निकलती तक नहीं थी वह पैरिस में अकेले ही घूमती है, सड़क पार करती है, चोर से भिड़ती है, कार भी ड्राइव करती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बहुत ही घबराने वाली, नर्वस लड़की रानी किस प्रकार स्वयं अपनी सारी परेशानियों का सामना करती हुई आत्मविश्वास के साथ स्वयं की शर्तों पर जिंदगी जीने के मायने सीखती है।
रानी की दादी का चरित्र बहुत ही काबिले-तारीफ़ है। वह बहुत ही खुले विचारों वाली दिल्ली की स्त्री हैं। रानी को समझाते हुए कहती हैं कि ‘बेटा जब हमें लगता है कि सब ख़त्म हो गया तब हम गलत होते हैं। फिर जब जिंदगी कुछ बेहतर हो जाती है, तब समझ आता है कि जो हुआ, अच्छा ही हुआ।’ यहाँ पर मेरे कहने का मतलब यह है कि भारतीय परिवेश में रहने दादी जितने  खुले विचारों विचारों वाली हैं, रानी के अंकल की फैमिली जो कि पैरिस में रहते हैं वो सब बहुत ही दकियानूसी सोच वाले हैं। वो सब बाहर से उत्तर-आधुनिक, बहुत ही खुले विचारों वाले बनने की कोशिश करते हैं, लेकिन वास्तव में ऐसे लोग बहुत ही दुहरे चरित्र के होते हैं। जिनको अपनी जड़ों का पता ही नहीं होता है। पैरिस में वे लोग जिन्हें रानी का सहयोग करना चाहिए था, उसे हिम्मत देनी चाहिए थी, वे दुहरे चरित्र के लोग उसके साथ हमदर्दी का नाटक करते हैं। रानी के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं कि जैसे उसकी शादी नहीं टूट गई बल्कि उसकी पूरी जिंदगी ही समाप्त हो गई हो। उषा प्रियंवदा ने अपने संस्मरण में ठीक ही लिखा है कि विदेशी परिवेश में भारतीय लोग, भारतीय लोगों से मिलने या बात करने से बचना चाहते हैं। वे उनके साथ गैरो जैसा व्यवहार करते हैं। ऐसा इसलिए करते हैं कि कहीं उन्हें उनकी सहायता न करनी पड़ जाय। रानी की आंटी द्वारा रानी को कुछ पैसे ऐसे दिए जाते हैं जैसे कि वह उनसे मिलने नहीं पैसा ही मांगने ही आई हो।
फिल्म में रानी विजय से प्रेम करती है, लेकिन उससे शादी करने का फैसला उसका केवल अपना फैसला न होकर पूरे परिवार का फैसला होता है जिसमें वह भी शामिल होती है। अपनी शादी को लेकर समाज की अन्य लड़कियों की तरह वह बहुत खुश भी होती है। लेकिन जब वह शादी तोड़ती है तो उसका वह स्वयं का निर्णय होता है। उसके इस फैसले में उसका परिवार या और कोई शामिल नहीं होता है।
 समाज की अन्य लड़कियों की तरह उसकी भी अपनी कुछ इच्छाए और कुछ सपने होते हैं जैसे- पैरिस जाकर हनीमून मनाने का सपना, इसी बहाने पैरिस घूमने का सपना। यहाँ पर यह कहना सही है कि वह सपना उसने अकेले ही नहीं बल्कि प्रेमी विजय के साथ रहकर देखा था। इसलिए वह उसका साझा सपना था | लेकिन विजय के मनाकर देने के बाद वह अपने सपने को मरने नहीं देती है, वह स्वयं अपने सपने को पूरा करने की इच्छा शक्ति रखती हैं। फिल्म में शुरू से अंत तक वह किसी भी प्रकार के द्वंद्व में नहीं जीती है। विजय के इंकार करने के बाद उसने तय कर लिया था कि अब उसे क्या करना है। अपने इस बात से वह अंत तक विचलित नहीं हुई। पूरी कहानी में हम देखते हैं कि मुख्य चरित्र रानी के द्वारा किसी भी प्रकार का विद्रोह या विरोध का भाव दिखाई नहीं देता है। रानी आधुनिक लड़कियों की तरह बदले की भावना या विजय के मना करने पर थप्पड़ मारना या उसकी वजह से अपनी जिंदगी को बर्बाद कर देना आदि हरकते नहीं करती है, जैसा कि आज के समाज में बहुतायत देखने मिलता है। और न ही पैरिस से आने के बाद उसे किसी भी बात का गर्व या घमंड होता है। वह बहुत ही सहजता और बौद्धिकता के स्तर पर व्यवहार करती हुई, गंभीरता का परिचय देती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि वह बहुत ही शांत भाव से मुस्कुराकर विजय की माँ से मिलती है, उनसे अच्छे से बात भी करती है, विजय से भी मिलती है। इस दौरान उसके चेहरे पर किसी भी प्रकार का नकारात्मक भाव नहीं होता है। वह बहुत ही सहजता का परिचय देती हुई, चुपचाप बिना कुछ बोले, कुछ कहे अंगूठी वापस कर जिंदगी के सफर में आगे बढ़ जाती है। किसी ने ठीक ही कहा है कि-

Successful men have two things with them...
Smile and silence
(1) Smile to avoid the problems,
(2) Silence to solve the problems...
वह रानी जिसने कभी भी अपने परिवार को कुछ कहने-सुनने का मौका नहीं दिया। उसने हमेशा अपने परिवार की बात मानी। जब उसने परिवार के सामने हनीमून पर जाने की इच्छा व्यक्त की, और पिता के द्वारा यह कहने पर कि क्या वहां जाना जरूर है, तो वह विद्रोह नहीं करती बल्कि बहुत ही सहजता से कहती है कि अगर आप कहेंगे तो नहीं जाऊँगी, लेकिन मैं जाना चाहती हूँ। रानी के पिता या किसी भी मध्यवर्गीय परिवार के लिए और ऐसे समय में बेटी को अकेले पैरिस (विदेशी परिवेश) में हनीमून पर भेजने का निर्णय लेना चौकाने वाला जरूर है लेकिन बेटी पर पिता का विश्वास कहीं न कहीं उन्हें भी अपनी बेटी के लिए आत्मविश्वास से भर देता है। जिससे वह भी उसे पैरिस जाने से मना नहीं कर पाते हैं।
हमारे भारतीय समाज में यह जो शादी से इंकार करने की परम्परा लड़कों के पक्ष में चली आ रही थी और आज भी है कि शादी-विवाह में लड़के और उसकी फैमिली को ही शादी से इंकार करने का हक़ है, लड़की या लड़की पक्ष के लोगों को नहीं। यहाँ पर हम देखते हैं कि रानी कहीं न कहीं इस धारणा को भी तोड़ती है। वह शादी से इंकार करती हुई स्वयं की शर्तों पर जीवन जीने का निश्चय करती है।
फिल्म में आये पुरुष चरित्र की बात करे तो संबंधों के हिसाब से उनके व्यवहार में काफी भिन्नता देखने को मिली। रानी के पापा, उसका छोटा भाई और उसके विदेशी पुरुष दोस्तों के बीच रानी की अहमियत, उनके साथ मानवीय रिश्ता, उस रिश्ते की अहमियत और उनके बीच अपनेपन का एहसास और दूसरी तरफ प्रेमी और होने वाले पति का रिश्ता, रानी के प्रति उसका व्यवहार, उसे अपनी जागीर समझ उसे अपनी शर्तों पर चलाना आदि| समाज में पुरुष का स्त्री के प्रति व्यवहार रिश्तों के आधार पर समाज और परिवार में अलग-अलग भूमिका अदा करता है | इन रिश्तों के बीच आपसी संबंधों में बंधी स्त्री को कहीं खुला माहौल मुहैया कराया जाता है तो कहीं कदम-कदम पर रोका-टोका जाता है| आधुनिक समाज में स्त्री-पुरुष के बीच रिश्तों के अहसास और उसकी अहमियत को ज्यादातर नफे-नुकसान को ध्यान में रखकर तौला जाने लगा है। जिसकारण अंत में विजय को भी पछतावे के सिवाय कुछ नसीब नहीं होता है। विजय की मानसिकता रानी को मना करने के बाद दूबारा उसके प्रति उसका व्यवहार तब बदल जाती है जब उसे रानी की बदलती छवि का दर्शन होता है। वह तब होता है, जब रानी पैरिस से आधुनिक कपड़ों में अपनी तस्वीर भेजती है। उन कपड़ों में विजय को वह सीधी-साधी रानी, रानी नहीं, क्वीन नजर आने लगती है। जिसकी वजह से उसे पुन: प्यार का होने लगता है। यहाँ पर यह कहना गलत न होगा कि आधुनिक समाज में लोगों को वास्तविकता कम बनावटीपन के साथ जीना ज्यादा पसंद आ रहा है। जैसा कि विजय के चरित्र में देखा जा सकता है।
फिल्म में आये प्रत्येक चरित्र स्पष्ट रूप से आधुनिक समाज और समाज के लोगों की मानसिकता की स्पष्ट झांकी प्रस्तुत करते हैं। फिल्म की कहानी को चरित्रों के माध्यम से ऐसे पिरोया गया है कि कहानी हमारे सामने आज के समय और समाज का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करती है। इस प्रकार फिल्म में हमें कही भी नाटकीयता का दर्शन नहीं होते। इस प्रकार यह फिल्म निर्देशक के विचारों की खूबसूरती का बयान करती हुई, समाज को नई दिशा देने काम करती है।


   

नाम – मंजू कुमारी (शोध-छात्रा)
(जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई-दिल्ली)
पता- 245, गोदावरी छात्रावास
जे.एन.यू, नई दिल्ली -110067
मो.न. 9871593794
ई.मेल – manjoo89jnu@gmail.com