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Tuesday, January 18, 2011

Story of Abdul Bismillah

January 18, 2011 2 Comments
अतिथि देवो भव

                     
अब्दुल बिस्मिल्लाह





गर्मी बहुत तेज थी। तीनचार दिनों से बराबर लू चल रही थी और जगह-जगह मौतें हो रही थीं शहर की सड़के चूल्हे पर चढ़े तवे की तरह तप् रही थीं। बड़े लोगों ने दरवाजों खस की टट्टियां ली थीं और उनके नौकर उन्हें पानी से तर कर रहे थे दूकानों पर पर्दे गिरे हुए थें। पटरी पर बैठने वाले नाई, खोमचे वाले और लाटरी के टिकट बेचने वाले ओवर ब्रिज के नीचे पहुच् गए थे और शाम होने का इन्तिजार कर रहे थे। रिक्शों में लोग इस तरह दुबककर बैठे थे ,मानो शरीर का कोई अंग अगर बाहर निकलेगा तो वह जल जाएगा।प्राय: सभी के रूमाल पसीना पोंछतेपोछते काले हो गए थे देहात के लोग तो अपने चेहरों को मोटे तौलिए या गमछे से इस तरह लपेटे हुए थे कि दूर से वे डाकू जैसे दिखाई पड़ते थे ।पैदल चलने वाले लोगों ने अपने सिर पर छाता नही तो अपना बैग ही रख् लिया था।किसीकिसी ने तो रूमाल ही सिर पर बांध लिया था।ठेलों पर बिकने वाला पानी पांच् पैसे गिलास से बढ़कर दस पैसे के भाव हो गया था।

         इस तरह गर्मी ने उस् शहर की समाज व्यवस्था और अर्थ-व्यवस्था को पूरी तरह अपनी गिरफ़्त में ले लिया था।लोग आजाद होते हुए गुलाम थे और् मजे की बात यह कि वे गर्मी का कुछ बिगाड़ नहीं सकते थे। अत: लू से बचने के लिए उन्होंने अपने जेबों में प्याज की छोटीमोटी पोलियां रख् ली थीं और सुक्र मना रहे थे।
  एक् छोटा- सा प्याज सलमान् साहब की जेब में भी पडा था।इसे उनकी बीवी ने चुपके से रख दिया ।सलमान साहब को हालाकिं इस् बात्  का पूरा पता था,पर वे यही मानकर  चल  रहे थे कि प्याज् के बारे में उन्हें कुछ भी नहीं मालूम और अपने इस् विश्वास पर वे डटे हुए थे कि लू का प्याज से कोई संबंध नहीं होता।
  सलमान साहब अपना सूटकेस उठाए छन्-छ्न करती सड़क पर बढ़े जा रहें थे, हालांकि उनकी इच्छा हो रही थी कि अपने सिर पर औरॊ की तरह वे भी रूमाल बांध ले ,पर असुविधा के ख्याल से वे ऎसा नहीं कर पा रहे थे। इसके अलावा उन्हें इस बात की उतावली भी थी कि जल्दी से वे मिश्रीलाल गुप्ता के निवास पर पहुच जाये। रिक्शा उन्हें मिला नहीं था,अत: अपने मन को वे यह भी समझाते जा रहे थे कि स्टेशन से उसका कमरा ज्यादा दूर नहीं है। यह बात मिश्रीलाल ने ही उन्हें बताई थी।
 सलमान साहब मिश्रीलाल गुप्ता से मिलने पहली बार उस् शहर में पहुचे थे। मकान नम्बर् तो उन्हे याद था ,पर सिचुएशन का पता नही था। लेकिन उन्हे पूरा विश्वास था कि वे मिश्रीलाल गुप्ता को अवश्य ही ढूंढ़ लेंगे।
 मिश्रीलाल गुप्ता सलमान साहब के पडो़स का एक ऎसा लड़का था जो कस्बेभर में अपने क्रान्तकारी विचारो के कारण मशहूर थ। गुप्ता खानदान का वह पहला युवक था जिसने मांस खाना आरम्भ कर दिया था और मुसलमान के होटलों में चाय पिया करता था जी हां, जिस तरह बनारस का विश्चविद्यालय हिन्दू है और और अलीगढ़ का विश्वविद्यालय मुसलमान , ठीक उसी तरह उनके कस्बे के होटल हिन्दू और मुसलमान थे। यह् बात्  अलग है कि हिन्दू होटलों में मुसलमानो के लिए या मुसलमान होटलों में हिन्दूओं के लिए प्रवेश की कोई मनाही नहीं थी,फ़िर भी जो धार्मिक लोग थे,वे इसे बुरा समझा करते थे।सलमान साहब के पडोसी जैकी साहब हमेशा मुसलमान हलवाई के यहां से ही मिठाई मगवाते थे,क्योकि शिवचरण हलवाई जो था ,वह इस्तिजे से नहीं रहता था।
 उस् कस्बे में उन दिनों एक ही स्कूल था और् वहां सबको अनिवार्य रुप से संस्कृत पढ़नी पड़ती थी,अत्: सलमान साहब ने भी राम: रामौ: “पढ़ा ,और नतीजा यह निकला कि वे उर्दू नहीं पढ़ सके जैसे मिश्रीलाल के बाबा गिरधारीलाल गुप्ता अपने जमाने में सिर्फ़ उर्दू ही पढ़ सके ।संस्क्रृत सीखने का मौका उन्हे नहीं था। एक् तो वैश्य ,दूसरे मदरसे में उसका प्रबन्ध नहीं था।सो, इसी किस्म की मजबूरियों ने सलमान् साहब से संस्कृत पढ़वाई और जब् वे उच्च शिक्षा लेने के लिए शहर पहुचे तो वहां भी उन्होंने सस्कृत ही पढी उन्हे विश्वास था कि एम० ए० करने के बाद वे कहीं कहीं संस्कृत के लेक्चरर हो जाएंगे, पर ऎसा नहीं हुआ और अब वे अपने ही कस्बे के नये-नये खुले इस्लामिया मिडिल स्कूल में हिस्ट्री पढा़ने लगे थे।
 मिश्रीलाल जिन दिनों इण्टर कर रहा था,सलमान साहब ने उसे संस्कृत पढाई थी ,अत्: वह उन्हे अपना गुरू मानता था और चरण छूता था। अब वह् बी० ए० कर् चुका था और किसी कम्पीटीशन की तैयारी कर् रहा था।उसकी प्रबल इच्छा थी कि सलमान् साहब जब उसके शहर में आए  तो उसके निवास पर् अवश्य पधारें।मिश्रीलाल की इस इच्छा  को अनपेक्षित रुप् से पूर्ण करने के लिए ही वे बगैर सूचना दिए उस शहर में पहुच गए थे ।अचानक उसके दरवाजे पर् दस्तक उसे चौका देना चाहते थे।
 सलमान साहब ने मुहल्ले का नाम याद् कियागोपालगंज़।हां यही नाम है। मकान नं०५६२।राधारमण मिस्र का मकान। स्टेशन से यही कोई आध मील पर स्थित
क्यों भाई साहब गोपालगंज़ किधर पडेगा ?”उन्होंने एक दुकानदार से पूछा तो पान् की पीक थूकने का कष्ट करते हुए उसने गलगलाकर् यह बताया कि वे महाशय  थोड़ा आगे निकाल आए हैं। पीछे मुड़कर् बिजली से उस् वाले खेमे से सटी हुई गली में घुस जाएं।
सलमान साहब उसकी दूकान के शेड से जब बाहर निकले तो लू का एक थपेड़ा चट्ट से उनके गाल पर लगा और उन्होंने अपनी एक हथेली कनपटी पर लगा ली । ठीक उसी वक्त उन्हें अपनी जेब में पड़े प्याज का भी ख्याल आया और क्षण-भर को वे आश्व्स्त हुए । हां, यही गली तो है। उन्होंने बिजली के खम्भे को ध्यान से देखा और गली में घुस गए।
दाहिनी ओर ए ब्लाक था । सलमान शाहब ने सोचा कि बाईं ओर जरुर बी ब्लाक होगा, पर उधर एच ब्लाक था। वे और आगे बढ़े,शायद एक वाली साइड में ही आगे चलकर बी पड़े। लेकिन नहीं,जहां ए खत्म हुआ वहां से एम शुरु हो रहा था। बाईं ओर सी था। वे चकरा गए।
“कहां जाना है?” एक सज्जन सड़क पर चारपाई निकालकर उसे पटक रहे थे और नीचे गिरे हुए खटमलों को मार रहे थे । उन्होंने उनकी बेचैनी को शायद भांप लिया था। सलमान साहब ने खुद अपने जूते से खटमल के एक बच्चे को मारा और पूछा, :यह बी-पांच सौ बासठ किधर पड़ेगा?”
“ओह, मिसिर जी का मकान? पह पुराने गोपालगंज में है। आप इधर से चले जाइए और आगे चलकर मन्दिर के पास से दाहिने मुड जाइएगा। वहां किसी से पूछ लिजिएगा।“सलमान साहब ने उन्हें धन्यवाद दिया और चले पड़े । मन्दिर के पास पहुंचकर जब वे दाहिनी ओर मुड़े तो उन्होंने देखा कि पीछे चार –पांच भैंसे बंधी हैं और एक लड़की अपने बरामदे में खड़ी होकर दूर जा रहे चूड़ीवाले के ठेले पर लगा हुआ था। सलमान साहब आगे बढ़ गए।
थोड़ा और आगे जाने पर पुराने ढ़ग के ऊंचे-ऊंचे मकान उन्हें दिखाई पड़े ,जिनकी छाया में उस इलाके की संकरी सड़कें अपेक्षाकृत काफ़ी ठंडी थीं और नंग –धड़ंग बच्चे उन पर उछ्ल रहे थे। सलमान साहब का मन हुआ कि यहां वे क्षण भर के लिए खड़े हो जाये, पर अपने इस विचार का उन्होंने तुरन्त ही परित्याग किया और चलते रहे ।
सामने एक लड़का दौड़ा आ रहा था। उसके पीछे-पीछे एक मोटा-सा चूहा घिसटा आ रहा था ।लड़के ने चूहे की पूंछ में सुतली बांध दी थी और उसका एक छोर थामे हुए था। सलमान साहब को देखकर—जैसा कि उन्हें उम्मीद थी—वह बिल्कुल नहीं ठिठका और उनकी बगल से भागने के चक्कर में उनसे टकरा गया।
“ये बी-पांच सौ बासठ किधर है जी? तुम्हें पता है, मिश्रजी का मकान?”
लड़के ने उनकी ओर उड़ती-सी नजर डाली और एक मकान की ओर संकेत करता हुआ भाग गया। उसके पीछे-पीछे चूहा भी घिसटता हुआ  चला गया।
सलमान साहब ने एक ठड़ी सांस ली और उस विशालकाय इमारत के सामने जाकर खड़े हो गए।वहां बाहर की दो औरतें चारपाई पर बैठी थीं और पंजाब समस्या को अपने ढ़ग से हल करने में लगी हुई थीं—
“अरी बिट्टन की अम्मां,वो तो भाग मनाओ कि हम हिन्दुस्तान में हैं,पंजाब में होती हो न जाने क्या गत हुई होती.....।
“राधाचरण मिश्रजी का मकान यही है?  
स्त्रियां चारपाई पर बैठी रहीं,जबकि सलमान साहब ने सोचा था कि वे उठ खड़ी होंगी—जैसा कि उनके कस्बे में होता है—लेकिन यह तो शहर है......
“मिसिर जी यहां नहीं रहते। वे जवाहर नगर में रहते हैं। यहां सिर्फ़ उनके किराएदार रहते हैं । एक स्त्री ने उन्हें जानकारी दी और खामोश हो गई ।
 “क्या काम है?” दूसरी ने पूछा और अपना सिर खुजलाने लगी ।
“उनके मकान में एक लड़का रहता है मिश्री लाल गुप्ता, उसी से मिलना था” ।
“ऊपर चले जाइए, सीढ़ी चढ़कर दूसरा कमरा उन्हीं का है” । उस सिर खुजलाने वाली औरत ने बताया और खड़ी हो गई ।
सलमान साहब भीतर घुस गए ।
वहां अंधेरा था और सीढ़ी नजर नहीं आ रही थी । थोड़ी देर तक खड़े रहने के बाद उन्हे कोने में एक नल दिखाई पड़ा, फिर सीढ़ी भी दिखने लगी और वे संभल-संभल कर ऊपर चढ़ने लगे ।
इस बीच उन्होंने अनुमान लगाया कि मिश्री लाल सो रहा होगा और दरवाजा खटखटाकर उसे जगाना पड़ेगा । वह हड़बड़ाकर उठेगा और सिटकिनी खोलकर आंखें मलते हुए बाहर देखेगा । फिर सामने उन्हें पाकर चरणों पर झुक जाएगा ।
“कौन”?
सीढ़ियां खत्म होते ही इस पार से किसी स्त्री का प्रश्न सुनाई पड़ा और वे ठिठक गए ।
“मिश्री लाल जी हैं क्या” ?
“थोड़ा ठहरिए” ।
उस स्त्री ने जरा सख्ती के साथ कहा और सलमान साहब को लगा कि स्त्री किसी महत्त्वपूर्ण काम में लगी हुई है । वे बिना किवाड़ों वाले उस द्वार के इस पार खड़े हो गए और कुछ सोचने लगे । तभी उन्होंने देखा कि अधेड़ वय की गोरी सी औरत मात्र पेटीकोट और ब्रेसियर पहने बरामदे से भागकर सामने वाली कोठरी में घुस गई और जल्दी से साड़ी लपेटकर ब्लाउज की हुक लगाते हुए बाहर निकल आई ।
“आइए !”
  उसने सलमान साहब को पुकारा तो वे इस प्रकार भीतर घुसे, जैसे उन्होंने उस स्त्री को अभी थोड़ी देर पहले भीतर घुसते हुए देखा ही नहीं । स्त्री ने भी शायद यही सोचा और इत्मीनान से खड़ी रही ।
सलमान साहब ने देखा कि बरामदे में बने परनाले के मुहाने पर एक उतरी हुई गीली साड़ी है और जय साबुन की गन्ध पूरे माहौल में भरी हुई है ।
“मिश्री लाल जी बगल वाले कमरे में रहते हैं, पर वे हैं नहीं ।” सुबह से ही कहीं गए हुए हैं । आप कहां से आ रहे हैं  ? बैठिए ।”
स्त्री ने अत्यन्त विनम्रता के साथ यह सब कहा और एक बंसखट बिछाकर फिर भीतर घुस गई । थोड़ी देर बाद वह एक तश्तरी में गुड़ और गिलास में पानी लिए हुए बाहर आई और बंसखट पर तश्तरी रखकर खड़ी हो गई ।
“पानी पीजिए, आज गर्मी बहुत है ।”
इतना कहकर उसने अपनी उतारी हुई साड़ी की ओर देखा और न जाने क्या सोचकर पानी रखकर फिर भीतर् घुस गई । अबकी वह ताड़ का एक पंखा लेकर लौटी और उसे भी बंसखट पर रख दिया।
सलमान साहब ने गुड़ खाया, पानी पिया और पंखा लेकर उसे हल्के- हल्के डुलाने लगे । “मिश्री कहीं बाहर तो नहीं चला गया है ?”
“बाहर तो नहीं गए हैं, शहर में ही होंगे कहीं । पिक्चर-विक्चर गए होंगे या किसी दोस्त के यहां चले गए होंगे । रोज तो कमरे में ही रहते थे, आज ही निकले हैं बाहर ।”
सलमान साहब ने घड़ी देखी, तीन बज रहे थे । उन्होंने थकान का अनुभव किया और बंसखट पर थोड़ा पसर गए ।
स्त्री फिर भीतर् से तकिया ले आई ।
“आप थोड़ा आराम कर लें, गुप्ता जी शाम तक तो आ ही जाएंगे ।” स्त्री ने उनके सिरहाने तकिया रखा और अपनी गीली साड़ी बाल्टी में रखकर नीचे उतर गई ।
सलमान साहब जब लेटे तो जेब में पड़ा प्याज उन्हे गड़ने लगा और उन्होने उसे बाहर निकालकर चारपाई के नीचे गिरा दिया । थोड़ी देर बाद उन्हे नींद आ गई ।
नींद में उन्होंने सपना देखा कि उनके स्कूल में मास्टरों के बीच झगड़ा हो गया और पीटी टीचर सत्यनारायण यादव को हेड मास्टर साहब बुरी तरह डांट रहे हैं । सलमान साहब उनका पक्ष लेकर आगे बढ़ते हैं तो सारे मास्टर उन पर टूट पड़ते हैं । उनकी नींद टूट जाती है ।
वे उठकर बैठ जाते हैं ।
लगता है, रात हो गई है । भीतर एक मटमैला सा बल्ब जल रहा है, जिसकी रोशनी बरामदे में भी आ रही है । बरामदे में कोई बल्ब नहीं है । भीतर से आने वाली रोशनी के उस चौकोर से टुकड़े में ही एक स्टोव जल रहा है और स्त्री सब्जी छौंक रही है जहां दोपहर में जय साबुन की गन्ध भरी हुई थी, वहीं अब जीरे की महक उड़ रही है ।
“मिश्री लाल नहीं आया अभी तक ?”
“अरे, अब हम क्या बताएं कि आज वे कहां चले गए हैं ? रोजाना तो कमरे में ही घुसे रहते थे ।”
“उस स्त्री ने चिन्तित मन से कहा और स्टील के एक गिलास में पहले से तैयार की गई चाय लेकर उसके सामने खड़ी हो गई ।”
“अरे आपने क्यों कष्ट किया ?”
“इसमें कष्ट की क्या बात है ? चाय तो बनती ही है शाम को ?”
सलमान साहब ने गिलास थाम लिया । स्त्री स्टोव की ओर मुड़ गई ।
तभी एक सद्यःस्नात सज्जन कमर में गमछा लपेटे, जनेऊ मलते हुए सीढ़ियां चढ़कर ऊपर आए और कमरे में घुसकर हनुमान चालीसा का पाठ करने लगे । जीरे की महक के साथ-साथ अब अगरबत्ती की महक भी वातावरण में तिरने लगी ।
सलमान साहब ने भीतर झांककर देखा तो पाया कि उस कमरे में पूरी गृहस्थी अत्यन्त सलीके के साथ सजी हुई थी और दीवारों पर राम, कृष्ण, हनुमान, कॄष्ण, शंकर पार्वती,लक्ष्मी और गणेश आदि विभिन्न देवी-देवताओं के फ़ोटो टँगे हुए थे । वहीं एक ओर लकड़ी की एक तख्ती लगी थी,जिस पर लिखा था— राममनोहर पाण्डेय ,असिस्टेंट टेलीफोन ऑपरेटर । वे सज्जन अपने दाहिने हाथ में अगरबत्ती लिए, बायें हाथ से दाहिने हाथ की टिहुनी थामें सभी तस्वीरों को सुगन्धित धूप से सुवासित कर रहे थे और बीच-बीच में गीता के कुछ श्लोक भी सही गलत उच्चारण के साथ बोल जाते थे। छत पर एक गन्दा-सा पंखा अत्यन्त धीमी चाल से डोल रहा था ।
     स्त्री ने सब्जी पका ली थी और अब वह रोटियां बना रही थी । सलमान साहब की इच्छा हुई कि अब वे वहां से चल दें और किसी होटल में ठहर जाएं, सुबह आकर मिश्री लाल से मिल लेंगे,क्योंकि रात काफी होती जा रही है और उसका अभी तक पता नहीं है । वे खड़े हो गए ।
“मैं अब चलता हूँ, कल सवेरे आकर मिल लूंगा ।” उन्होने अपना बैग उठा लिया ।
“कहां जाएंगे ?” स्त्री ने उनसे सीधा सवाल किया और पीछे मुड़कर उनकी ओर ताकने लगी ।
“किसी होटल में रुकूंगा ।”
“क्यों भाई साहब, होटल में क्यों रुकिएगा, क्या यहां जगह नहीं है ? खाना तैयार हो गया है, खा लीजिए और छत पर चलकर लेटिए, रात में गुप्ता जी आ ही जाएंगे । और अगर न भी आएं तो सुबह चले जाइएगा । इस टाइम तो मैं आपको न जाने दूंगी । आइए, जूता-वूता उतारिए और हाथ-मुंह धोकर खाने बैठिए ।”
“नहीं भाभी जी, आप क्यों कष्ट उठाती हैं ?”
उस स्त्री को भाभी कहने में  कोई हर्ज नहीं लगा सलमान साहब को।
“कष्ट की क्या बात है ? आइए, खाना खाइए ?  ”
सलमान साहब विवश हो गए। उन्होंने जूते उतारे और हाथ-मुंह धोकर खड़े हो गए।अब तक पांडेय जी अपनी पूजा-अराधना से खाली हो गए थे और भीतर बिछी चौकी पर बैठकर कुछ कागज –पत्तर देख रहे थे। सलमान साहब को उनसे नमस्कार करने तक का मौका अभी नहीं मिला था। यह उन्हें बहुत खल रहा था।लेकिन इतनी देर बाद नमस्कार करने का कोई औचित्य भी नहीं था, इसलिए उन्होंने सीधे-सीधे बात करने की कोशिश की।
“भाई साहब, आप भी उठिए।”
“नहीं आप खाइए, मैं थोड़ी देर बाद भोजन करुंगा ।”
उन्होंने तनिक शुष्क  स्वर में सलमान साहब को उत्तर दिया और बगैर उनकी ओर देखे अपने कागज पत्तर में उलझे रहे।
“आप बैठिए, दिन-भर  के भूखे प्यासे होंगे । वे बाद में खा लेंगे। दफ्तर से आकर उन्होंने थोड़ा नाश्ता भी लिया हैं ।आप तो सो रहे थे”।
स्त्री ने एक बार फिर आग्रह किया और पीढ़ा रखकर थाली लगा दी।लोटे में पानी और गिलास रख दिया।
सलमान साहब बैठ गए।
वे भीतर से बहुत आह्लादित थे। उनके कस्बे में ऎसा नहीं हो सकता कि बगैर जाति-धर्म की जानकारी किए कोई ब्राह्मण किसी को अपने चौके में बैठाकर खाना खिलाए, लेकिन शहर में ऎसा हो सकता है।यद्यपि यह कोई बड़ा शहर नहीं है।और यहां के लोग भी ग्रामीण संस्कारों वाले हैं,पर है तो आखिर शहर। यहां के पढ़े लिखे लोग प्रगतिशील विचारों के होते हैं।उनमेंसंकीर्णता नहीं होती।वे धर्म प्रवण होते हुए भी रूढ़ धारणाओं से मुक्त होते हैं।
सलमान साहब सो रहे थे।उन्हें बैगन की सब्जी बहुत अच्छी लग रही थीं। ताजे आम का अचार यद्यपि पूरा गला नहीं था,पर स्वादिष्ट था।रोटियों पर घी भी चुपड़ा हुआ था।ऎसी रोटियां उनके घर में नही बनती ।वहां तो उलटे तवे पर बनी हुई विशालकाय और अधसिंकी चपातियां किसी पुराने कपड़े में लिपटी रखी होती हैं,....
स्त्री ने एक फूली हुई,भाप उड़ाती रोटी उनकी थाली में और डाल दी थी।“आप गुप्ता जी के गांव से आए हैं?”
सलमान साहब ने सिर उठाया ।पांडे जी अब कागज-पत्तरों से खाली हो गए थे और आम काट रहे थे ।उनकी आवाज में उसी तरह की शुष्कता विद्यमान थी।
“जी हां!” सलमान साहब ने जबाब दिया और अचार उठाकर चाटने लगे।
पाण्डेजी  ने संकेत से पत्नी को भीतर बुलाया और आम की फांकिया थमा दीं।
स्त्री ने उन्हें सलमान साहब की थाली में डाल दिया।
“आप उनके भाई है?”फिर वही शुष्क स्वर।
सलमान साहब को कोफ्त हुई।
“जी नहीं,वह मेरा शिष्य है।”
“क्या आप अध्यापक हैं?”
“जी हां।
“कहां पढाते हैं?”
“आप भी गुप्ता हैं?”
“जी नहीं”।
“ब्राह्मण हैं?”
नहीं, मैं मुसलमान हूं,मेरा नाम मुहम्मद सलमान है”।
उन्होंने अपना पूरा परिचय दिया और रोटी के आखिरी टुकड़े में सब्जी लपेटने लगे।
पाण्डे जी ने अपनी स्त्री की ओर आंखें उठाईं तो पाया कि वह खुद उनके ओर देख रही थीं।ऎसा लगा कि दोनों ही एक-दूसरे से कुछ कह रहें हैं,पर ठीक-ठीक कह नहीं पा रहे हैं।
सलमान साहब अगली रोटी का इन्तजार कर रहे थे,लेकिन स्त्री स्टोव के पास से उठकर भीतर चली गई थी और कुछ ढूंढने लगी थी।
सलमान साहब आम खाने लगे थे।
स्त्री जब बाहर निकली तो उसके हाथ में कांच का एक गिलास था और आंखों में भय।
उसके सलमान साहब की थाली के पास रखा स्टील का गिलास उठा लिया था और उसकी जगह कांच का गिलास रख दिया था।
सलमान को याद आया कि अभी शाम को जिस गिलास में उन्होंने चाय पी थी,जिस थाली में वे खाना खा रहे थे, वह स्टील की ही थी। पल –भर के लिए वे चिन्तित हुए। फिर उन्होंने अपनी थाली उठाई और परनाले के पास जाकर बैठ गए ।गुझना उठाया और अपनी थाली मांजने  लगे।
स्त्री ने थोड़ा-सा पीछे मुड़कर उनकी ओर देखा , लेकिन फिर तुरन्त बाद ही वह अपने काम में व्यस्त हो गई।
मिश्रीलाल अभी तक नहीं आया था।
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                                     अब्दुलबिस्मिल्लाह