विद्यापति का सौन्दर्य वर्णन (vidhyapati ka saundarya varnan)
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January 19, 2018
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विद्यापति का सौन्दर्य वर्णन
“वास्तव में जीवन सौन्दर्य की आत्मा है।
सामंजस्य की रेखाओं में जितनी मूर्तिमत्ता पाता हूँ, विषमताओं में नहीं।
ज्यों-ज्यों हम बाह्य जीवन की विविधताओं में उलझते जाते हैं, त्यों-त्यों इसके
मूलगत सौन्दर्य के भूलते जाते हैं।” – (महादेवी)
सौन्दर्य चेतना का उज्ज्वल
वरदान है, सौन्दर्य ही जीवन की आत्मा है। इस नश्वर संसार में जब हम एक-दूसरे के
साथ समान भाव से मिलजुल कर रहते हैं, तभी हम आपसी प्रेम रूपी-सौन्दर्य की प्राप्ति
कर पाते हैं। जब मनुष्य ‘सौन्दर्य’ की खोज केवल बाह्य ‘भौतिक आडम्बरों’ में करता
है तो वह अपने आतंरिक मूलगत सौन्दर्य को भूल जाता है। जबकि- आतंरिक सुन्दरता ही
स्थायी एवं सच्ची होती है।
वास्तव में सौन्दर्य क्या
है ? इसे परिभाषित नहीं किया जा सकता है। क्योंकि सौन्दर्य की कोई सीमा या मापदण्ड
नहीं होता है। संसार की वह हर वस्तु चाहे वह जड़ हो या चेतन सबका अपना अलग-अलग गुण,
धर्म या सौन्दर्य होता है। लेकिन वह सुन्दरता वस्तुनिष्ठ है या व्यक्तिनिष्ठ वह तो
देखने वाले पर निर्भर करती है। क्योंकि संसार का हर एक मनुष्य किसी वस्तु को देखता
तो आँखों से ही हैं लेकिन सबका नजरियाँ अलग-अलग होता है। जैसे- जब मथुरा में भगवान
श्रीकृष्ण को प्रजा देखती थी तो श्रीकृष्ण का सौन्दर्य ‘प्रजा के रक्षक’ (तारणहार)
के रूप में दिव्य-सौन्दर्य की प्राप्ति होती थी। लेकिन जब श्रीकृष्ण के उसी दिव्य-सौन्दर्य
को ‘राजा कंश’ देखता था तो वही दिव्य-सौन्दर्य रूपी मूर्ति कंश को उसके ‘काल’ के
रूप में भयभीत करती थी। इस प्रकार एक तरफ हम देखते हैं कि श्रीकृष्ण का वही दिव्य-सौन्दर्य
जहाँ एक तरफ सौन्दर्य बिखेर रहा होता है, वही दूसरी तरफ वही दिव्य-सौन्दर्य भय का
संचार भी कर रहा होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सौन्दर्य द्रष्टा की आँखों
में बसता है।
सौन्दर्य अपने आपमें ही
बहुत व्यापक शब्द है। सौन्दर्य की चर्चा केवल रूप सौन्दर्य के माध्यम से नहीं की
जा सकती है। सौन्दर्य रूप, प्रकृति, श्रमिक, युद्ध आदि सबका सौन्दर्य होता है।
संसार में कुछ ऐसी भी चीजें होती हैं जिसे देखकर हमें प्रसन्नता होती है। और उस वस्तु
को हम बार-बार देखना चाहते हैं, सौन्दर्य वहां भी होता है। विद्यापति भी ऐसी ही
दृष्टिकोण के कवि हैं। विद्यापति स्वयं के सौन्दर्यानुभूति को कविता के माध्यम से
अभिव्यक्त करते हैं। ऐसा करने के लिए उन्होंने चाहे मिथिला की सुंदरियों के
सौन्दर्य को निहारा हो, या रानी लखिमा देवी के सौन्दर्य से अभिभूत हुए हो, चाहे
राधा-श्रीकृष्ण के छवि की कल्पना करते हुए आध्यात्मिकता में भी प्रवेश किया हो।
जहाँ पर इन्होंने नायिका के बाह्य सौन्दर्य के वर्णन को ‘वय: संधि’ के माध्यम से
प्रकट किया है, वहीँ पर दूसरी तरफ विद्यापति अरूप-सौन्दर्य के साथ-साथ नायक के भी
अपरूप सौन्दर्य को उभारा है। विद्यापति नायक-नायिका के बाहरी सौन्दर्य को
चित्रित्र करने में जितने कुशल हैं, उतने ही वह आतंरिक मनोदशा को भी रेखांकित करने
में प्रवीण रहे हैं।
हिंदी साहित्य जगत में
विद्यापति का अद्वितीय स्थान है। इनका जन्म 14वीं शती के आस-पास हुआ था। अभिनव
जयदेव की उपाधि से विभूषित जयदेव आदिकाल के मुख्य कवियों में से एक हैं। लेकिन
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ में इनकी गणना आदिकाल के फुटकर
खाते में करते हैं। विद्यापति की मुख्य तीन रचनाओं में ‘कीर्तिलता’, ‘कीर्तिपताका’,
अवहट्ठ भाषा और ‘विद्यापति पदावली’ मैथिली भाषा में हैं। विद्यापति को सर्वाधिक
प्रतिष्ठा पदावली से मिली। पदावली में राधा-श्रीकृष्ण के माध्यम से नायक-नायिका के
अपरूप-सौन्दर्य और उनके शृंगार वर्णन की अद्भुत झांकी यथार्थ के धरातल पर प्रस्तुत
करते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल विद्यापति के पदावली में नायक-नायिका के शृंगार
वर्णन के सम्बन्ध में लिखा है –“आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए
हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने ‘गीत गोविन्द’ के पदों को आध्यात्मिक संकेत
बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को।” अर्थात विद्यापति शृंगारी कवि हैं न
कि भक्त कवि। अगर उन्हें कोई भक्त कवि की संज्ञा दी जाती है तो वह आध्यामिक रंग के
चेश्मे से देखते हैं। क्योंकि पदावली में अलौकिक जगत के राधा-श्रीकृष्ण को आधार
बनाकर, लौकिक जगत में व्याप्त यहाँ के नायक-नायिकाओं के प्रेम सम्बन्ध और उनके वय:
संधि का वर्णन किया गया है। इसीलिए आलोचकों के बीच ‘विद्यापति भक्ति कवि हैं या
शृंगारी कवि’ यह बहस का मुद्दा है। पदावली में राधा-श्रीकृष्ण के माध्यम से नायिका
के वय: संधि, नख-शिख, सद्य: स्नाता का जितनी सूक्ष्मता से गहराई में जाकर नायिका
के रूप–सौन्दर्य का वर्णन किया गया है, उससे इन्हें भक्ति कवि कम, शृंगारी कवि
ज्यादा कहा जाना चाहिए। एक शृंगारी कवि होने के कारण विद्यापति के काव्य में
नायिका के रूप–सौन्दर्य का अद्भुत चित्रण देखने को मिलता है।
काव्य–परम्परा की शुरुआत
सर्वप्रथम संस्कृत काव्य से होती है। संस्कृत के कालिदास, महाकवि माघ, हिंदी
साहित्य के विद्यापति के समकालीन चंडीदास, चंदबरदायी आदि हैं। इन कवियों के यहाँ
भी सौन्दर्य की अद्वितीय छंटा दिखाई देती है। महाकवि कालिदास को मानों सौन्दर्य के
लिए उपमा के क्षेत्र में मानों महारथ हासिल हो। कालिदास ने “अभिज्ञानशाकुन्तलम्”
नाटक में नायिका शकुंतला के रूप-सौन्दर्य का अद्वितीय वर्णन प्रकृति के माध्यम से
प्रस्तुत किया है। जिस कारण उन्हें “उपमाकालिदास्स्य” की उपाधि दी गई है। कालिदास
की तरह हिंदी साहित्य में अगर किसी ने नायिका के रूप सौन्दर्य का वर्णन किसी ने
किया है तो वह विद्यापति हैं। नायिका के अपरूप सौन्दर्य आतंरिक एवं बाह्य
परिवर्तनों पर खुलकर सूक्ष्मता से लेखनी चलाने का किसी ने साहस किया है तो वह
विद्यापति हैं। कालिदास ने अपने नाटक ‘अभिज्ञानशाकुन्तल’ में नायिका के सौन्दर्य
को ऐसे निखारा है कि नायक दुष्यंत नायिका शकुंतला को देखकर अवाक् रह जाता है।
“अधर: किसलय राग:
कोमलविटपानुकारिणौ बाहू।
कुसुममिव लोभनीयं
यौवनमड्गेषु संनदध्म्।।”
दूसरी तरफ नायिका के अपरूप सौन्दर्य को देखकर
विद्यापति स्वयं चकित हो जाते हैं –
“माधव पेखल अपरूप बाला।
सैसव जौवन दुहु एक भेला।।
विद्यापति कह तोहे अगेआनि।
दुहु एक जोग एक के कह सयानी।।”
विद्यापति के पदों में प्रकृति केवल उद्दीपन रूप
में ही नजर आती है। जबकि कालिदास के यहाँ प्रकृति की भरमार दिखाई देती है। विद्यापति
के यहाँ जैसे – काली रात का होना, बिजली का तडकना, नायिका का अभिसार के लिए जाने
में सहायक होना आदि मुख्यत: इन्हीं जगहों पर देखने को मिलता है। विद्यापति के
समकालीन चंडीदास थे। उन्होंने भी विद्यापति की तरह लोक भाषा को महत्त्व दिया। जबकि
उस समय सामंती समाज में लोक भाषा को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता था। इस प्रकार विद्यापति
ने लोक भाषा में लेखनी चलाकर यह साबित किया कि प्रत्येक रचना का अपना-अपना
उद्देश्य होता है। बिना उद्देश्य की कोई रचना हो ही नहीं सकती। इस प्रकार हम देखते
हैं कि जिस समय राजदरबार के अन्दर कविता का अस्तित्व था, कविता वहीँ पलती-बढती थी,
ऐसी स्थिति में इन्होंने लोक के आम लोगों के लिए, उनकी स्थिति को ध्यान में रखकर
उन्हीं की ही भाषा में कविता पाठ किया। इस प्रकार लोक भाषा में राधा-श्रीकृष्ण को
केंद्र में रखकर दोनों कवियों ने स्वतन्त्र पद लिखें। लेकिन राधा की भावनाओं पर
अधिक जोर विद्यापति ने दिया। विद्यापति के पदों में सुख अधिक है, करूणा कम, विलास
अधिक है। जबकि चंडीदास के पदों में स्वभाविकता, गंभीर बनाने वाली वेदना है, और
समाज की मर्यादा को तोड़ने वाला प्रेम है। इनका प्रेम-सौन्दर्य लोक व्यवहार मात्र है।
विद्यापति की पदावली एक शृंगारिक
रचना है। शृंगार के दो भेद होते हैं। ‘संयोग सृंगार एवं वियोग शृंगार’। संयोग
शृंगार से तात्पर्य नायक-नायिका के आपसी मिलन और वियोग का तात्पर्य आपसी अलगाव से
है। विद्यापति की नायिका ‘राधा’ वियोग में संयोग के पलों को याद करती है। इनकी
पदावली में संयोग पक्ष बहुत ही मार्मिक एवं कलापूर्ण है। विद्यापति सौन्दर्य और
प्रेम के कवि हैं। ‘प्रेम’ विद्यापति के काव्य की सबसे बड़ी प्रेरणा है। ‘विद्यापति
पदावली’ के पदों के सम्बन्ध में डॉ. ग्रियर्सन का कथन है– “हिन्दू धर्म का सूर्य
अस्त हो सकता है, वह समय भी आ सकता है, जब श्रीकृष्ण में विश्वास और श्रद्धा का
अभाव हो कृष्ण प्रेम की स्तुतियों के प्रति जो हमारे लिए इस भवसागर के रोग की दवा
है, विश्वास जाता रहे, तो भी विद्यापति के गीतों की प्रति, जिनमें राधा और श्रीकृष्ण
के प्रेम का वर्णन है, लोगों की आस्था और प्रेम कभी कम न होगा।” क्योंकि विद्यापति
की पदावली लोकभाषा में एक चर्चित रचना है। किसी को श्रेष्ठ होने की मुहर समाज के
द्वारा ही मिलती है। इन्होंने
राधा-श्रीकृष्ण को आधार बनाकर समाज के सभी क्रिया-कलापों को रेखांकित करते हैं।
सांसारिक भौतिक प्रेम को प्रकट करने के साथ-साथ स्त्रियों के सभी दशाओं को भी
चित्रित करते हैं।
विद्यापति ने अपनी पदावली
की रचना ‘मुक्तक’ शैली में की है। ‘मुक्तक’ छंद की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसका
प्रत्येक पद स्वतन्त्र होता है। विद्यापति के पदों को पढ़ते समय हमारे सामने अचानक
रमणीय दृश्य प्रकट हो जाता है, उन्हें मंत्र मुग्ध भी कर देता है। विद्यापति की
पदावली सौन्दर्य की पिटारी है। ‘विद्यापति’ ने इसमें सौन्दर्य के आतंरिक एवं बाह्य
दोनों रूपों का चित्रण बड़े ही सहज ढंग से किया है। इसमें बाहरी और आतंरिक सौन्दर्य
को अनेक रूपों में देखा जा सकता है। जैसे– नख-शिख वर्णन, वय:संधि, नोंक-झोक,
स्मरण, राधा का प्रेम प्रसंग, सघ:स्नाता का वर्णन, प्रकृति-चित्रण आदि। इन सभी
रूपों में विद्यापति के सौन्दर्य की अलग छंटाये देखने को मिलती है। कालिदास, माघ,
दंडी आदि। कवियों का ‘नख-शिख’ वर्णन ‘नख; से शुरू होता है लेकिन विद्यापति का ‘नख-शिख’
वर्णन नायिका के ‘नख’ से न शुरू हो करके इनकी दृष्टि सौन्दर्य के लिए सर्वप्रथम
नायिका के स्तनों पर टिकती हैं, जिस सौन्दर्य के विद्यापति चितेरे हैं।
“पीन पयोधर दूबरि
गता।
मेरू उपजल कतक-लता।।
ए कान्हु ए कान्हु
तोरि दोहाई।
अति अपूरूप देखलि
साईं।। ”
विद्यापति ने नायिका के अंग–सौन्दर्य
का वर्णन लौकिक नायिका की भांति किया है। जिसके माध्यम से नायिका के अंग-प्रत्यंग
के सौन्दर्य का वर्णन किया है।
“सुधा मुखि के बिहि
निरमल बाला।
अपरूप रूप मनोभव मंगल त्रिभुवन विजयी माला।।”
विद्या पति नायिका का ही नहीं नायक के
रूप-सौन्दर्य का भी वर्णन उतनी ही तन्मयता से किया है।
“कि कहब हे सखि
कानुक रूप
के पतियाए सपन सरूप।
अभिनव जलधर सुन्दर
देह
पीत बसन पर दामिनी
रेह।।”
सद्य:स्नाता रूपी–सौन्दर्य
से तात्पर्य नायिका के स्नान वर्णन से है। विद्यापति नायिका के रूप–सौन्दर्य के
वर्णन करने में माहिर तो थे ही सद्यः स्नाता वर्णन के वह पूरी तरह से सिद्धहस्त
थे। सरोवर से स्नान करके तुरंत निकली नायिका के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए लिखते
हैं –
“कामिनि करत सनाने।
हेरितहि हृदय हनय पंचबाने।।
चिकुर गरए जलधारा।
जनि मुख ससि डर रोअए अंधकारा।।
कुचजग चारु चकेवा। निज कुल मिलि आन कौन देवा।।
ते शंका भुज पासे।
बांधि धएल उडि जाएत अकासे।।”
विद्यापति की पदावली में
नायक-नायिका के यौवन और विलास मुख्य विषय बनाया गया है। नायिका के बाह्य सौन्दर्य
के वय:संधि का वर्णन बहुत ही सूक्ष्मता से किया है। जहाँ तक नख-शिख वर्णन की बात
है वह अन्य कवियों की रचनाओं में भी देखने को मिलता है। लेकिन विद्यापति उस
परम्परा से कुछ अलग ही दिखाई देते हैं। कवि ने नायिका का नख-शिख वर्णन खूब जमकर
किया है। विद्यापति रूप-सौन्दर्य के चितेरे हैं। इनके रूप सौन्दर्य की झलक हमें ‘वय:
संधि’ सम्बन्ध पदों में देखने को मिलता है। नायिका बचपन को छोड़ती हुई युवा अवस्था
में प्रवेश कर रही है। उसमें शारीरिक परिवर्तन के साथ-साथ मानसिक परिवर्तन भी हो
रहा है। ऐसे सूक्ष्म परिवर्तनों की जितनी सूक्ष्मता से विद्यापति ने देखा और जाना
है, उतना किसी अन्य कवि की दृष्टि वहाँ तक नहीं पहुंची है। विद्यापति ने इस
सौन्दर्य को बड़े ही काव्यात्मक ढंग से निहारा है।
“सैसव जौवन दुहु मिल गेल।
स्रवनक पथ दुहु लोचन लेल।।
वचनक चातुरि लहु-लहु
हास।
धरनिये चाँद कएल
परगास।।”
इसी प्रकार वय: संधि सौन्दर्य को ‘मतिराम’ ने
अपने ग्रन्थ ‘रसराज’ में भी रेखांकित किया है। लेकिन विद्यापति जैसी सूक्ष्मतम
दृष्टि से नहीं है-
“अभिनव जोबन आगमन जाके तन में होय।
ताको मुग्धा कहते
हैं कवि कोविद सब होय।।”
वय: संधि के पदों में विद्यापति नायिका के
शारीरिक एवं मानसिक चंचलता को भी सूक्ष्मता से बताते हैं। वह चंचलता रूपी सौन्दर्य
केवल नायिका ‘राधा’ का न हो करके संसार भर की हर नव-युवती का है। जैसे नयनों का
चंचल होना। विद्यापति का सौन्दर्य तब और अपनी पराकाष्ठा को प्राप्त कर लेता है, जब
वह नायिका के माध्यम से समाज की अन्य स्त्रियों को समझाते हुए सचेत करते हैं कि –
“विद्यापति कवि गाओल रे धनि मन धरु-धीर।
समय पाए तरुवर फर रे कतयों सिचु नीर।।”
हे तरुणी धीरज को धारण करो। समय आने पर तुम्हारा
मिलन नायक ‘श्रीकृष्ण’ से जरुर होगा। क्योंकि बिना समय के वृक्ष में फल भी नहीं
आते, कोई उसे चाहे जितना पानी क्यों न दे।
विद्यापति नायिका के रूप-सौन्दर्य
के अद्भुत चितेरे हैं। वह राधा के रूप-सौन्दर्य का वर्णन करने से अभी अघाते नहीं
हैं। इनकी अगाघ सौन्दर्य दृष्टि नायिका के सौन्दर्य की तलाश विविध रूपों में करती
है। विद्यापति नहाती हुई नायिका के अपरूप सौन्दर्य को रेखांकित करते हुए कहते हैं
कि ऐसी अपरूप सौन्दर्य से युक्त नायिका को देखकर किसके मन में उमंगों का संचार एवं
सुखद अनुभूति नहीं होगी।
कामिनी करर सनाने।
हेरितहि हृदय हनए पंचबावे।
चिकुर गरए जलधारा। जनि मुख-ससि डर रोअए अंधारा।।
विद्यापति के सौन्दर्य वर्णन की सबसे बड़ी
विशेषता यह है कि नायिका के रूप-सौन्दर्य के वर्णन के साथ-साथ नायक के भी
रूप-सौन्दर्य के वर्णन में उतनी ही गहराई में जाकर सौन्दर्य को रेखांकित करने की
कोशिश की है। विद्यापति के सौन्दर्य वर्णन की यही खूबी उन्हें अन्य कवियों के
नख-सिख वर्णन से अलग कर उस पराकाष्ठा तक पहुंचा देती है, जहाँ दोनों मिलकर एक हो
जाते हैं। नायिका नायक की सुन्दरता को अपनी सखियों से बताते हुए कहती है कि-
“कि कहब हे सखि
कानुक रूप।
के पति आएत सपन सरूप।।
अभिनव जलधर सुन्दर
देह।
पीत बसन पर दामिनी
रेह।।”
विद्यापति ने नायक की सुन्दरता को अतुलनीय बताया
है। उसका रूप-सौन्दर्य अपरूप है। माधव की सुन्दरता की उपमा देने के लिए प्रकृति के
सारे उपमान ही कम पड जा रहे हैं।
“माधव कत तोर करब
बड़ाई।
उपमा तोहर कहब ककरा हम कहि तहूँ अधिक लजाई।।”
विद्यापति के यहाँ प्रकृति का रूप बहुत ही कम
देखने को मिलता है। विद्यापति ने प्रकृति को केवल नायिका की सहायता के लिए संकेत
रूप में प्रस्तुत किया है। नायिका अभिसार के लिए जा रहा है। वह प्रकृति से निवेदन
करते हुए कहती है-
“चंदा जनि उग आजुक राति। पिया के लिखिअ पथाओव पाँति।।
साओन सएँ हम करब पिरिति। जत अभिमत अभिसारक रीति।।”
विद्यापति की नायिका ‘राधा’ श्रीकृष्ण से मिलने
के लिए केवल कृष्णाभिसारिका, शुक्लाभिसारिका ही नहीं बनती बल्कि पुरुष–वेष तक भी
धारण करती है। विद्यापति के पदों में नायिका लम्बी तैयारी एवं दूती प्रसंग के साथ
नायक से मिलने जाती है।
विद्यापति की दृष्टि भले ही
सर्वप्रथम नायिका के स्तनों पर जाकर टिकती है लेकिन गौर करने की बात यह भी है कि
वह प्रेम-सौन्दर्य के कवि होने के साथ-साथ अपने समय के सामन्ती व्यवस्था, समाज में
फैली बुराईयों, विडम्बनाओं आदि को बड़ी ही सूक्ष्म दृष्टि से अपने पदों में चित्रित
किया है। विद्यापति सामन्ती समाज में पले-बढे व्यक्ति हैं जो नारी के विचारों का
वर्णन सूक्ष्मता से करने में निपुण हैं।
“जनम हवए जनु ज्यौ मुनि होय। युवति भयै जनमै जनु कोय।
होइएँ जुवति जनु होय रसवंतु। रसैव बुझयै जनु होव कुलमंतु।।”
विद्यापति समाज में व्याप्त
किसी भी परम्परा का विरोध नहीं करते हैं। वह शैव भक्त होते हुए भी राधा-श्रीकृष्ण
के माध्यम से मर्यादित स्त्री-पुरुष को अपने काव्य का विषय बनाया। विद्यापति के
सौन्दर्य को बताते हुए सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी कहते हैं कि –“विद्यापति
सौन्दर्य के द्रष्टा भी जबरदस्त थे और सौन्दर्य में तन्मय हो जाने की शक्ति भी
उनमें अलौकिक थी।”
सन्दर्भ –ग्रन्थ :
1.प्रो.कृष्ण देव शर्मा विद्यापति और उनकी पदावली
अशोक प्रकाशन, नई सडक, दिल्ली -06
2. रामवृक्ष शर्मा बेनीपुरी विद्यापति
पदावली
लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
3.नागार्जुन विद्यापति
के गीत
वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
4. कालिदास अभिज्ञानशाकुन्तल
प्रथम सर्ग
5. विश्वनाथ त्रिपाठी हिंदी साहित्य का सरल इतिहास
ओरियंट
लांगमैन प्राइवेट लिमिटेड-2007
6.ओमप्रकाश सिंह प्रमुख हिंदी कवि और काव्य
(आदिकाल
और भक्तिकाल)
ग्रन्थलोक,
दिल्ली-32
नाम - मन्जू कुमारी
पता - गोदावरी छात्रावास
कमरा न.- 265,
जे.एन.यू नई-दिल्ली-110067