Friday, March 31, 2023

Are you facing problem to pronunciation or spoken words that includes 'sh' or 's'

March 31, 2023 0 Comments


The "s" and "sh" sounds are similar but have distinct differences. Here are some tips to help you differentiate between the two sounds and improve your pronunciation:

The "s" sound is made by placing the tip of your tongue behind your front teeth and blowing air out through your mouth. It is an unvoiced sound, which means that your vocal cords do not vibrate when you make this sound.

The "sh" sound is made by placing the tip of your tongue on the roof of your mouth, just behind your front teeth, and blowing air out through your mouth. It is also an unvoiced sound, but the airflow is more restricted than for the "s" sound, causing a hissing sound.


Here are some examples of words that use each sound:

"S" sound: sip, bus, miss, loss

"Sh" sound: ship, bush, wish, push

To practice these sounds, you can try saying words that contain them slowly and carefully, paying attention to how your tongue and mouth move. You can also try practicing with a language learning app or website that provides audio examples and feedback on your pronunciation.


Here are some additional tips and examples to help you differentiate between the "s" and "sh" sounds:

Tongue placement: When making the "s" sound, the tip of your tongue should be just behind your front teeth. When making the "sh" sound, your tongue should be further back in your mouth, with the middle of your tongue raised towards the roof of your mouth.

Airflow: The "s" sound is made with a steady flow of air, while the "sh" sound is made with a more forceful and turbulent flow of air.

Duration: The "s" sound is shorter than the "sh" sound, which is typically held for a slightly longer duration.

Examples of words that contain the "s" sound:

sit

bus

dress

fast

gas

miss

loss


Examples of words that contain the "sh" sound:

ship

wash

push

fish

wish

cash

sure

Remember that the distinction between these two sounds can be subtle, so it getting them right may take some practice helpful exercise is to say pairs of words that differ only by the "s" or "sh" sound, such as "sip" and "ship" or "bus" and "bush," and listen carefully to the difference between them.

Thursday, March 30, 2023

Natural Language Processing (NLP) in English

March 30, 2023 0 Comments

Introduction to NLP

Natural Language Processing (NLP) is a branch of Artificial Intelligence (AI) that deals with the interaction between humans and computers using natural language. The main goal of NLP is to enable machines to understand and interpret human language, allowing them to communicate with us in a more intuitive and efficient way.



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NLP is an interdisciplinary field that draws on various areas of study, including computer science, linguistics, and cognitive psychology. The development of NLP has been driven by the need to make computers more accessible and user-friendly, and to automate tasks that were previously done manually.


Applications of NLP

NLP has numerous applications in different fields, including:

Chatbots: NLP enables chatbots to understand and respond to natural language queries and provide assistance to users.

Sentiment Analysis: NLP can be used to analyze the sentiment of large volumes of social media data, helping businesses understand customer opinions and feedback.

Machine Translation: NLP can be used to automatically translate text from one language to another, allowing people who speak different languages to communicate with each other.

Information Extraction: NLP can be used to automatically extract useful information from large volumes of unstructured data, such as news articles or social media posts.

Speech Recognition: NLP can be used to transcribe spoken words into text, enabling users to interact with computers using their voice.


Challenges of NLP


Despite the many applications of NLP, there are still several challenges that need to be addressed in order to improve its accuracy and effectiveness. Some of these challenges include:

Ambiguity: Natural language is often ambiguous, with words having multiple meanings depending on the context in which they are used.

Idioms and Slang: Natural language is also full of idioms and slang that can be difficult for machines to understand.

Cultural Differences: Different cultures have different ways of expressing the same ideas, making it challenging to develop NLP systems that can accurately understand and interpret language across cultures.

Domain Specificity: NLP systems are often developed for specific domains, such as finance or healthcare, making it challenging to apply them to other domains without significant modifications.

Conclusion

NLP has come a long way since its inception, and it has already transformed the way we interact with machines. As technology continues to advance, we can expect NLP to play an increasingly important role in our daily lives. With the help of NLP, machines will be able to understand and interpret human language more accurately and efficiently, making our interactions with them more natural and intuitive.




Natural Language Processing (NLP) in Hindi

March 30, 2023 0 Comments

 प्राकृतिक भाषा प्रसंस्करण (NLP) एक कृत्रिम बुद्धिमत्ता का क्षेत्र है जो मनुष्य भाषा को समझने और व्याख्या करने में कंप्यूटरों को सक्षम बनाने पर ध्यान केंद्रित करता है। इसमें अल्गोरिदम और मॉडल विकसित किए जाते हैं जो प्राकृतिक भाषा डेटा, जैसे पाठ, भाषण और चाल, का विश्लेषण.

NLP एक विस्तृत क्षेत्र है जिसमें पाठ का वर्गीकरण, भावना विश्लेषण, मशीन अनुवाद, भाषण पहचान और अधिक तकनीकों और एप्लिकेशन को शामिल किया जाता है। NLP का मूल उद्देश्य कंप्यूटर को मनुष्य की भाषा को समझने और उत्पन्न करने में सक्षम बनाना है, जो विभिन्न उद्योगों में उपयोग के लिए उन्नति का बहुत बड़ा संभावना देता है।

NLP में एक मुख्य चुनौती प्राकृतिक भाषा की अस्थिरता और जटिलता है। प्रोग्रामिंग भाषाओं के विपरीत, जो एक निश्चित वाक्य संरचना और व्याकरण रखते हैं, प्राकृतिक भाषा पूरी तरह से संदर्भात्मक होती है और बोलने वाले व्यक्ति, स्थिति और सांस्कृतिक संदर्भ के आधार पर अत्यधिक भिन्न हो सकती है। इससे कंप्यूटरों को मानवों के तरीके से भाषा को समझने और व्याख्या करने में कठिनाई होती है।

इस चुनौती का सामना करने के लिए, NLP अनुसंधानकर्ताओं और व्यवहारकर्ताओं ने विभिन्न तकनीकों और मॉडल विकसित किया गया है. 



Natural Language Processing (NLP) क्या है और इसके क्या उपयोग हैं?


Natural Language Processing (NLP) एक ऐसी तकनीक है जो मानव भाषा को समझने और उसे संशोधित करने के लिए कंप्यूटर द्वारा विकसित की गई है। यह तकनीक संगठित और असंगठित डेटा के साथ काम करती है जो मानव भाषा में होता है। यह अंग्रेजी, हिंदी, स्पेनिश और अन्य भाषाओं को समझने और उनसे संवाद करने की क्षमता रखता है।

NLP के उपयोग क्या हैं?


NLP के कई उपयोग हैं। यह उन उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जाता है जहाँ बहुत सारा डेटा उपलब्ध होता है और उसे संशोधित करना आवश्यक होता है। आजकल निम्नलिखित कुछ उपयोग हैं जो NLP इस्तेमाल करते हुए किए जाते हैं:

स्पैम फ़िल्टरिंग - इसके जरिए इमेल या मैसेज में से अनचाहे संदेशों को हटाया जाता है।

भाषा अनुवाद - इससे एक भाषा के विशेष शब्द दूसरी भाषा में अनुवाद किए जा सकते हैं।

टेक्स्ट समारोह - इससे लंबे टेक्स्ट जब हम नेचुरल लैंग्वेज प्रोसेसिंग की बात करते हैं, तो हम इसके एप्लिकेशन की बात भी कर सकते हैं। इस तकनीक को सभी तरह के क्षेत्रों में उपयोग किया जा सकता है। यह समाज, राजनीति, व्यावसायिक और वैज्ञानिक एप्लिकेशन में उपयोग किया जाता है।


एक उदाहरण के रूप में, सोशल मीडिया कंपनियां नेचुरल लैंग्वेज प्रोसेसिंग का उपयोग करती हैं ताकि वे उन लोगों को शामिल कर सकें जो अपने उत्पादों या सेवाओं से संबंधित टिप्पणियों और पोस्ट्स को लेकर बातचीत कर रहे हैं।

एक और उदाहरण, विज्ञान के क्षेत्र में इसे उस तकनीक के रूप में उपयोग किया जाता है जिससे वैज्ञानिक लेखों और रिपोर्टों को समझना और उनसे नए ज्ञान निकालना आसान होता है।

इसके अलावा, इसका उपयोग भाषा संबंधित समस्याओं का हल निकालने के लिए भी किया जाता है, जैसे कि मशीन अनुवाद या वाक्य विन्यास की जांच।

एक दूसरा उदाहरण है व्यावसायिक एप्लिक.

वैश्विक स्तर पर NLP के उपयोग:

NLP का उपयोग विभिन्न क्षेत्रों में विस्तारपूर्वक किया जा रहा है। इसे आम तौर पर सामान्य भाषा प्रसंस्करण, वाणिज्यिक एवं विज्ञान से सम्बंधित उद्योगों में उपयोग किया जाता है। हालांकि, आजकल NLP बहुत से अन्य क्षेत्रों में भी उपयोग किया जा रहा है।

इसका उपयोग सिस्टम का समझने में भी किया जाता है जो विभिन्न भाषाओं में लिखा गया होता है। उदाहरण के लिए, Google Translate में नई भाषाओं को जोड़ने में NLP का उपयोग किया जाता है।

और एक उदाहरण यह है कि कुछ स्वास्थ्य सेवाओं में भी NLP का उपयोग किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, अस्पतालों में प्रयुक्त अनुरोध पत्रों और चिकित्सा रिकॉर्ड के लिए NLP का उपयोग किया जा सकता है।

NLP की क्षमताएं और प्रदर्शन:

NLP के विकास से, इसकी क्षमताएं और प्रदर्शन में सुधार हुआ है। इसे लगभग सभी विशेषज्ञों द्वारा स्वीकार किया जाता है 

उन्नत NLP एप्लिकेशन:

उन्नत NLP एप्लिकेशन विशेष रूप से संदर्भ संशोधन, समझौता पाठक और मशीन अनुवाद पर केंद्रित होते हैं। इन एप्लिकेशन्स का उपयोग संशोधित या विशिष्ट भाषा का पाठकों द्वारा समझने में मदद करने के लिए किया जाता है।

एक उदाहरण के रूप में, संदर्भ संशोधन एक NLP एप्लिकेशन है जो उन शब्दों का पता लगाने में मदद करता है जो आप नहीं जानते हैं। इसके लिए, संदर्भ संशोधन एक उच्च स्तर का विश्लेषण करता है ताकि वह आपको संबंधित जानकारी दे सके।

एक और उन्नत NLP एप्लिकेशन मशीन अनुवाद है, जो एक भाषा से दूसरी भाषा में पाठों को अनुवाद करता है। यह अनुवाद मशीन भाषा अनुवाद (Machine Translation) के रूप में जाना जाता है और अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिश, हिंदी, चीनी और अन्य भाषाओं के बीच अनुवाद किया जा सकता है।

प्रगत एनएलपी क्षेत्र और उनका उपयोग:

अधिक उन्नत एनएलपी तकनीकों का उपयोग कई क्षेत्रों में किया जाता है, जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:

मशीन अनुवाद: एनएलपी का उपयोग भाषा अनुवाद में किया जाता है। इसमें, एनएलपी सिस्टम समझदार अनुवाद करने में मदद करता है और मशीन अनुवाद को समझने और सुधार करने में मदद करता है। गूगल अनुवाद एक उदाहरण है जो एनएलपी का उपयोग करता है।

वॉयस रिकग्निशन: वॉयस रिकग्निशन एक ऐसी तकनीक है जो शब्दों को स्पष्ट वाक्यों में बदलती है। इसमें भी एनएलपी का उपयोग किया जाता है। वॉयस रिकग्निशन से हम वाणी शब्दों को समझ सकते हैं और उन्हें संसाधित वाक्यों में बदल सकते हैं।

समाज संचार वैज्ञानिक: सोशल मीडिया एनालिटिक्स, संदेश संचार का अध्ययन और विश्लेषण करने के लिए भी एनएलपी का उपयोग किया जाता है। यह लोगों के भावनाओं को समझने और सोशल मीडिया.

Saturday, July 28, 2018

कालिदासस्य रघुवंशमहाकाव्यम्

July 28, 2018 1 Comments

रघुवंशस्य द्वितीय: सर्ग:

                    


र.व.-२.१   अथ प्रजानामधिप:  प्रभाते जायाप्रतिग्राहितगन्धमाल्याम् ।

                 वनाय पीतप्रतिबद्धवत्सां यशोधनो धेनुमृषेर्मुमोच॥१॥
र.व.-२.२   तस्या:  खुरन्यासपवित्रपांसुमपांसुलानां धुरि कीर्तनीया ।



                मार्गं मनुष्येश्वरधर्मपत्नी श्रुतेरिवार्थं स्मॄतिरन्वगच्छत् ॥२॥                                                     र.व.-२.३   निवर्त्य राजा दयितां दयालुस्तां सौरभेयीं सुरभिर्यशोभि: ।
पयोधरीभूतचतु:समुदां जुगोप गोरुपधरामिवोर्वीम् ॥  
                                                                            
       र.व.-२.४    व्रताय तेनानुचरेण  धेनोर्न्यषेधि शेषोऽप्यनुयायिवर्ग: ।
                चान्यतस्तस्य शरीररक्षा स्ववीर्यगुप्ता हि मनो: प्रसूति: ।।४॥                                          र.व.-२.५   आस्वादवध्दि:     कवलैस्तृणानां कण्डूयनैर्दशनिवारणैश्च ।
                अव्याहतै:  स्वैरगतै: स तस्या: सम्राट्    समाराधनतत्परोऽभूत् ॥५॥                                   र.व.-२.६   स्थित:   स्थितमुच्चलित: प्रयातां  निषेदुषीमासनबन्धधीर: ।
                जलाभिलाषी  जलमाददानां छायेव तां भूपतिरन्वगच्छत् ॥६॥                                         र.व.-२.७   स न्यस्तचिह्नामपि राजलक्ष्मीं  तेजोविशेषानुमितां  दधान: ।
                आसिदनाविष्कृतदानराजिरन्तर्मदवस्थ  इव   द्विपेन्द्र:॥७॥                                                                                                            
       र.व.-२.८    लताप्रतानोद्ग्रथितै:   स केशैरधिज्यधन्वा विचचार दावम् ।
                 रक्षापदेशान्मुनिहोमधेनोर्वन्यन्विनेष्यन्निव दुष्ट्सत्त्वान् ॥८॥
               
र.व.-२.९     विसृष्टपार्श्वानुचरस्य  तस्य पार्श्वद्रुमा:    पाशभृता समस्य ।                    
                 उदीरयामासुरिवोन्मदानामालोकशब्दं   वयसां  विरावै:  ॥९॥
र.व.-२.१०  मरुत्प्रयुक्तश्च्   मरुत्सखाभं    तमर्च्यमारादभिवर्तमानम् ।                                                                        
                अवाकिरन्बाललता:    प्रसूनैराचरलाजैरिव  पौरकन्या: ॥१०॥
 र.व.-२.११    धनुर्भृतोऽप्यस्य  दयार्द्र्भावमाख्यातमन्त:  करणैर्विशङ्कै: ।                                      



                  विलोकयन्त्यो वपुरापुरक्ष्णां प्रकामविस्तारफलं  हरिण्य: ॥११॥
 र.व.-२.१२    स  किचकैर्मरुतपूर्णरन्ध्रै:       कूजद्धिरपादितवन्शकृत्यम् ।                                                    
                   शुश्राव कुञ्जेषु  यश:  स्वमुच्चैरुद्रीयमानं   वनेदेवताभि:॥१२॥
 र.व.-२.१३      पुक्तस्तुषरैर्गिरिनिर्झराणामनोकहाकम्पितपुष्प्गन्धी    ।              
                   तमातपक्लन्तमनातपत्रमाचारपूतं    पवन:    सिषेवे ॥१३॥
 र.व.-२.१४    शशाम  वृष्ट्याऽपि  बिना  दवाग्निरासीद्विशेषा फलपुष्पवृध्दि:   ।                                              
                ऊनं  न सत्तेष्वधिको  बबाधे   तस्मिन्वनं  गोप्तरि गाहमाने॥१४॥
र.व.-२.१५ सञ्चारपूतानि  दिगन्तराणि कृत्वा  दिनान्ते निलयाय  गन्तुम् ।                                        
                प्रचक्रमे पल्लवरागताम्रा प्रभा  पतङ्गस्य मुनेश्व  धेनुः ॥१५॥
 र.व.-२.१६ तां  देवतापित्रतिथिक्रियार्थामिन्वग्ययौ   मध्यमलोकपाल:   ।
               बभौ च सा तेन सतां मतेन  श्रद्धेव   साक्षाद्विधिनोपपन्ना ॥१६॥                                            र.व.-२.१७ स    पल्वलोत्तीर्णवराहयूथान्यावासवृक्षोन्मुखबर्हिणानि ।                                                              
              ययौ  मृगाध्यासितशाद्वलानि   श्यामायमानानि  वनानि पश्यन् ॥१७॥                                  र.व.-२.१८ आपीनभारोद्वहनप्रयत्नाद्  गॄष्टिर्गुरुत्वाद्वपुषो   नरेन्द्र: ।

              उभवलञ्चक्रतुरञ्चिताभ्यां  तपोवनवृत्तिपथं   गताभ्याम् ॥१८॥                                                                                
         
 र.व.-२.१९ वसिष्ठधेनोरनुयायिनं तमावर्तमानं वनिता वनान्तात् ।
                 पपौनिमेषलसपक्ष्मपङ्कितरुपोषिताभ्यामिव  लोचनाभ्याम् ॥१९॥  
र.व.-२.२०  पुरस्कृता  वत्र्मर्नि  पार्थिवेन  प्रत्युद्र्ता  पार्थिवधर्मपत्न्या  ।
                  तदन्तरे सा विरराज  धेनुर्दिनक्षपामध्यगतेव   ॥२०।। 

र.व.-२.२१  प्रद्क्षिणीकृत्य पयस्विनीं तां सुदक्षिणा  साक्षतपात्रहस्ता ।
                 प्रणम्य  चानर्च  विशालमस्या:    श्रृङ्गान्तरं   द्वारर्मिवार्थसिद्धे: ।।२१॥                                  र.व.-२.२२  वत्सोत्सुकापि  स्तिमिता सपर्यां प्रत्यग्रहीत्  सेति ननन्दतुस्तौ ।                                                        
                 भक्त्योपप्अन्नेषु हि तद्विधानां  प्रसादचिह्नानि  पुर: फ़लानि ॥२२॥                                     र.व.-२.२३  गुरो: सदारस्य निपीड्य पौदा समाप्य सान्ध्यं च विधिं दिलीप:   ।                                                            
                  दोहावसाने  पुनरेव दोग्धीं भेजे  भुभोच्छिन्नरिपुर्निषण्णाम् ॥२३॥                                  
 र.व.-२.२४  तामन्तिकन्यस्तबलिप्रदीपामन्वास्य  गोप्ता  गृहिणीसहाय: ।
                  क्रमेण  सुप्तामनु  संविवेश सुप्तोत्थितां प्रातरनूदतिष्ठत् ॥२४॥
र.व.-२.२५    इत्थं व्रत धारयत:  प्रजार्थं समं महिष्या महनीयकीर्ते: ।                                                              
                   सप्त  व्यतीयुर्त्रिगुणानि तस्य दिनानि  दीनोद्धरणोचितस्य ॥२५॥


 र.व.-२.२६  अन्येद्युरत्माचरस्य  भावं जिज्ञासमाना  मुनिहोमधेन:     ।
                   गङ्गाप्रपातान्तविरुढशष्पं      गौरीगुरोर्गह्वरमाविवेश ।।२६॥
 र.व.-२.२७ सा दुष्प्रधर्षा मनसानि  हिंस्रैरित्यद्रिशोभाप्रहितेक्षणेन  ।
                 अलक्षिताभ्युत्पतनो  नृपेण प्रसह्म सिंह किल तां चकर्ष ॥२७॥
 र.व.-२.२८ तदीयमाक्रन्दितमार्तसाधोर्गुहानिबद्ध्प्रतिशब्ददीर्घम्  ।
                 रश्मिष्विवादाय  नगेन्द्रसक्तां निवर्तयामास  नृप्स्य दृष्टिम्॥२८॥
 र.व.-२.२९ स पाटलयां गवि तस्थिवांसं धनुर्धर: केसरिणं ददर्श ।
                 अधित्यकायामिव  धातुमय्यां  लोध्रद्रुमं सनुमत:   प्रफ़ुल्लम्॥२९॥
 र.व.-२.३० ततो मृगेन्द्रस्य मृगेन्द्रगामी वधाय वध्यस्य  शरं शरण्य: ।
                  जाताभिङ्गो  नृपतिर्निषङ्ग्दुद्ध् र्तुमैच्छ्त्प्रसभोद्धरुतारि: ॥३०॥  
र.व.-२.३१   वामेत्तरस्तस्य     कर: प्रहर्तुर्नखप्रभाभूषितक्ङ्कपत्रे  ।
                  सक्तङ्गुलि:   सायकपुङ्ख एव  चित्रार्पितारम्भ  इवाव्तस्थे ॥३१॥
र.व.-२.३२   बाहुप्रतिष्ट्म्भ्विवृद्ध्मन्युरभ्यर्णमागस्कृतमस्पृश्द्धि:        ।
                 राजा  स्वतेजोभिरदह्मतान्तर्भोगीव   मन्त्रौषधिरुद्धवीर्य:     ॥३२॥
 र.व.-२.३३ तमार्यगृह्मं  निगृहीत्धेनुर्मनुष्यवाचा   मनुवंशकेतुम् ।
                 विस्मापयन्विस्मितमात्मवृत्तौ  सिंहोरुसत्त्वंनिजगाद  सिंह:    ॥३३॥


 र.व.-२.३४ अलं महीपाल तव श्रमेणप्रयुक्तमप्यस्त्रमितो वृथा स्यात् ।
                  न पादपोन्मूलनशक्तिरंह:   शिलोच्च्ये  मूच्छ्र्ति  मरुतस्य ॥३४॥
 र.व.-२.३५ कैलासगौरं  वृषमारुरुक्षो:  पादार्पणानुग्रह्पूतपृष्ठम्  ।
                अवेहि मां  किङ्करमष्टमूर्ते:   कुम्भोदर  नाम निकुम्भमित्रम्  ॥३५॥
 र.व.-२.३६ अमुं पुर: पश्यसि देवदारुं पुत्रीकृतोऽसौ वृषभध्वजेन ।
                 यो  हेमकुम्भस्तननि: सृतानां स्कन्दस्य मातु:  पयसां रसज्ञ:  ॥३६॥
 र.व.-२.३७ कण्डूयमानेन कतं कदाचिद्वन्यद्विन्यद्विपेनोन्मथिता त्वगस्य ।
                अथैन्म्द्रेस्तनया शुशोच  सेनान्यमालीढमिवासुरस्त्रै:  ॥३७॥
 र.व.-२.३८ तदाप्रभृत्येव  वनदिपानां  त्रासार्थमस्मिन्नह्मद्रिकुक्षौ  ।
                व्यापारित्:शूलभृता  विधाय   सिह्त्वमङ्कागतसत्त्वव्रुत्ति:॥३८॥
 र.व.-२.३९ तस्यालमेषा क्षुधितस्य तृप्त्यै प्रविष्टकाला परमेश्वरेण  ।
               उपस्थिता  शोणित्पारणा  मे सुरद्धिश्चान्द्रमसी  सुधेव  ॥३९॥
 र.व.-२.४०  स त्वं निवर्तस्व विहाय लज्जां गुरोर्भवान्दर्शितशिष्यभक्ति:।
                 शस्त्रेण रक्ष्यं यदशक्यरक्षं न तद्यश: शस्त्रभृतां क्षिणोति ॥४०॥
र.व.-२.४१    इत्ति प्रगल्भं पुरुषाधिरजो मृगाधिराजस्य वचो निशम्य ।
                 प्रत्याहतास्त्रो  गिरिशप्रभावादात्मन्यवज्ञां  शिथिलीचकर ॥४१॥
 र.व.-२.४२ प्रत्यब्रवीच्चैनमिषुप्रयोगे  तत्पूर्वभड्गे  वितथप्रयत्न:    ।
               जडीकृतस्त्र्यम्बकवीक्षणेन  वज्र  मुमुक्षत्रिव   वज्रपाणि:     ॥४२॥
 र.व.-२.४३ संरुद्ध्चेष्टस्य मृगेन्द्र ! कामं हास्यं वचस्तद्यदहं विवक्षु:  ।
                 अन्तर्गतं प्राणभृतां हि वेद सर्वं भवान्भावम्तोऽभिधास्ये॥४३॥


 र.व.-२.४४  मान्य: स मे स्थावरजड्गमानां  सर्गस्थितिप्रत्यवहारहेतु:    ।
                 गुरोरपीदं  धनमाहितग्नेर्नश्यत्पुरस्तादनुपेक्षणीयम्  ।।४४॥
 र.व.-२.४५ स  त्वं   मदीयेन  शरीरवृत्तिं  देहेन निर्वर्तीयतुं प्रसीद ।
                दिनावसानो त्सुकबालवत्सा विसृज्यतां धेनुरियं महर्षे:  ॥४५॥
 र.व.-२.४६ अथान्धकरं गिरिगह्वराणां  दंष्टामयूखै: शकलानि कुर्वन् ।
                 भूय:   स भूतेश्वरपार्श्ववर्ती  किञ्चिद्विह्स्यार्थपतिं  बभाषे  ॥४६॥
 र.व.-२.४७ एकातपत्रं जगत:  प्रभुत्वं नवं  वय:  कान्तमिदं वपुश्च् ।
                अल्पस्य हेतोर्बहु हातुमिच्छन्विचारमूढ:  प्रतिभासि मे त्वम् ॥४७॥
 र.व.-२.४८ भूतानुकम्पा तव चेदियं गौरेका भवेत्स्वस्तिमती त्वदन्ते ।
                  जीवन्पुन:  शश्वदुपप्लवेभ्य: प्रजा: प्रजानाथ पितेव पासि॥४८॥
र.व.-२.४९ अथैकधेनोरपराधचण्डाद् गुरो: कृशानुप्रति माद्धिभेषि ।
                शक्योऽस्य मन्युर्भवता विनेतुं गा: कोटिश: स्पर्शयता घटोध्नी:॥४९॥
 र.व.-२.५० तद्रक्ष  कल्याणपरम्पराणां  भोक्तारमूर्जस्वलमात्मदेहम्  ।
                महीतलस्पर्शनमात्रभिन्नमृद्धं  हि राज्यं पदमैन्द्रमाहु:   ॥५०॥
 र.व.-२.५१ एतावदुक्त्वा विरते मृगेन्द्रे प्रतिस्वनेनास्य गुहागतेन ।
                 शिलोच्चयोऽपि  क्षितिपालमुच्चै:  प्रीत्या तमेवार्थमभाषतेव ॥५१॥
 र.व.-२.५२ निशम्य देवानुचरस्य वाचं मनुष्यदेव: पुनरप्युवाच ।
                 धेन्वा  तदध्यासितकातराक्ष्या  निरीक्ष्यमाण: सुतरां दयालु: ॥५२॥
 र.व.-२.५३ क्षतात्किल त्रायत  इत्युदग्र: क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढ:   ।
                राज्येन  किं  तद्विपरीतवृत्ते:    प्राणैरुपक्रोशमलीमसैर्वा  ॥५३॥
 र.व.-२.५४ कथं न शक्योऽनुनयो महर्षेर्विश्राणनाच्चान्यपयस्विनीनाम्।
                 इमामनूनां सुरभेरवेहि रुद्रौजसा तु प्रहृत्यं त्वयाऽस्याम्॥५४॥
 र.व.-२.५५ सेयं स्वदेहार्पणनिष्क्रयेण न्याय्या मया मोचयितुं भवत्त: ।
                न पारणा स्याद्विहता तवैवं  भवेदलुप्तश्च मुने: क्रियार्थ:  ॥५५॥
 र.व.-२.५६ भवानपीदं  परवानवैति महान्हि यत्नस्तव देवदारौ  ।
                 स्थातुं नियोक्तुर्न हि शक्यमग्रे विनाश्य रक्ष्यं स्वयमक्षतेन ॥५६॥
 र.व.-२.५७ किमप्यहिंस्यस्तव चेन्मतोऽहं यश:शरीरे भव मे दयालु: ।
                 एकान्तविध्वंसिषु  मद्विधानां पिण्डेष्वनास्था खलु  भौतिकेषु  ॥५७॥
 र.व.-२.५८ सम्बन्धमाभाषणपूर्वमाहुर्वृत्त:   स  नौ  सङ्गतयोर्वनान्ते  ।
                तद्भूतनाथानुग  नार्हसि त्वं सम्बन्धिनो मे प्रणयं विहन्तुम् ॥५८॥
 र.व.-२.५९ तथेति गामुक्तवते दिलीप: सद्य:प्रतिष्टम्भविमुक्तबाहु: ।
                स न्यस्तशस्त्रो हरये स्वेदहमुपानयत्पिण्डमिवामिषस्य ॥५९॥
 र.व.-२.६० तस्मिन्क्षणे  पालयितु:  प्रजानामुत्पश्यत:   सिंहनिपातमुग्रम्  ।
                अवाड्मुखस्योपरि   पुष्पवृष्टि:  पपात  विद्याधरहस्तमुक्ता॥६०॥
 र.व.-२.६१ उत्तिष्ठ वत्सेत्यमुतायमानं वचो निशम्योत्थितमुत्थित: सन् ।
                  ददर्श राजा जननीमिव स्वां गामग्रत: प्रस्रवणीं न सिंहम् ॥६१॥
 र.व.-२.६२ तं विस्मितं धेनुरुवाच साधो मायां मयोद्धाव्य परीक्षितोऽसि।
                 ऋषिप्रभवान्मयि नान्तकोऽपि प्रभु: प्रहर्तुं किमुतान्याहिंस्रा:॥६२॥
 र.व.-२.६३ भक्तया गुरौ मय्यनुकम्पया च प्रीताऽस्मि ते पुत्र वरं वृणीष्व।
                 न केवलानां पयसां प्रसूतिमवेहि मां कामदुघां प्रसन्नाम्॥६३॥
 र.व.-२.६४ तत: समानीय  स मानितार्थी  हस्तौ स्वह्स्तार्जितवीरश्अब्द: ।
                 वंशस्य कर्त्तारमन्अन्तकीर्तिं सुदक्षिणयां तनयं ययाचे ॥६४॥
 र.व.-२.६५ सन्तानकामाय तथेति कामं राजे प्रतिश्वुत्य पयस्विनी सा ।
                 दुग्ध्वा  पय:  पत्रपुटे मदीयें पुत्रोपभुड्क्ष्वेति  तमादिदेश ॥६५॥
 र.व.-२.६६ वत्त्सस्य होमार्थी विधेश्व् शेषेरनुज्ञामधिगम्य मात: ।
                 ओधस्यमिच्छामि तवोपभोक्तुं षष्ठांश्मुर्व्या इवरक्षित्ताया: ।।६६॥
 र.व.-२.६७ इत्थं क्षितीशेन वसिष्ठधेनुर्विज्ञापिता प्रीततरा बभूव ।
                 तदन्विता हैमवताच्च कुक्षे:  प्रत्याययावाश्रममश्रमेण॥६७॥


 र.व.-२.६८ तस्या: प्रसन्नेन्दुमुख: प्रसादं गुरुर्नृपाणां गुरवे निवेद्य ।
                 प्रहर्चिह्ननुमितं प्रियायै शशंस वाचा पुनरुक्तयेव ॥६८॥
 र.व.-२.६९ स नन्दिनीस्तन्यमनिन्दितात्मा सद्वत्सलो वत्सहुताव्शेष् ।
                 पपौ वसिष्ठने कृताभ्यनुज्ञ: शुभ्र यशो मूर्तीमवातितृष्ण:॥६९॥
 र.व.-२.७० प्रातर्यथोक्तव्रतपाणान्ते प्रास्थानिकं स्वस्त्य्यनं प्रेयुज् ।
                 तौ दम्पती सवां प्रति राजधानी प्रस्थापयामास वशी वसुष्ठः॥७०॥
 र.व.-२.७१ प्रदक्षिणीकृत्य हुतं हुताशमनन्तरं भर्तुररुन्धतीं च ।
                धेनुं सवत्सां च नृपः प्रतस्थे सन्मङ्गलोदग्रतरप्रभावः ॥७१॥
 र.व.-२.७२ श्रोत्राभिरामध्वनिना रथेन स धर्मपत्नीसहितः सहिष्णुः।
                 ययावनुद्घातसुखेन मार्गं स्वेनेव पूर्णेन मनोरथेन ॥७२॥
 र.व.-२.७३ तमाहितौत्सुक्यमदर्शनेन प्रजाः प्रजार्थव्रतकर्शिताङ्गम् ।
                नेत्रैः पपुस्तृप्तिमनाप्नुवद्भिर्नवोदयं नाथमिवौषधीनाम् ॥७३॥
 र.व.-२.७४ पुरन्दरश्रीः पुरमुत्पताकं प्रविश्य पौरैरभिनन्द्यमानः ।
                भुजे भुजङ्गेन्द्रसमानसारे भूयः स भूमेर्धुरमाससञ्ज ॥७४॥
 र.व.-२.७५ अथ नयनसमुत्थं ज्योतिरत्रेरिव द्यौः सुरसरिदिव तेजो वह्निनिष्ठयूतमैशम् ।
                 नरपतिकुलभूत्यै गर्भमाधत्त राज्ञी गुरुभिरभिनिविष्टं लोकपालानुभावैः ॥७५॥                          

            महाकविकालिदासकृतौ रघुवंशे महाकाव्ये नन्दिनीवरप्रदानो नाम द्वितीयः सर्गः ॥२॥ इति ॥

Friday, January 19, 2018

भीष्म साहनी का नाटक ‘हानूश’ : सृजनात्मकता का संकट

January 19, 2018 0 Comments
भीष्म साहनी का नाटक ‘हानूश’ : सृजनात्मकता का संकट
                                     
                                         -मंजू कुमारी

hanoosh
‘भीष्म साहनी’ सर्वप्रथम कथाकार, उपन्यासकार और बाद में नाटककार के रूप में प्रतिष्ठित हुए | इन्होंने कुल छ: नाटक लिखे हैं – 1. हानूश (1977), 2. कबिरा खड़ा बाजार में (1981),3. माधवी (1984), 4. मुआवजे (1992), 5. रंग दे बसंती चोला (1998), 6. आलमगीर (1999)| हानूश’ भीष्म साहनी का पहला नाटक है | यह नाटक कलाकार की सृजनात्मकता को केंद्र में रखकर लिखा गया है | ‘हानूश’ नाटक का पात्र हानूश आम आदमी की तरह ताला बनाने वाला (कुफ्लसाज़) साधारण व्यक्ति होता है | उसकी बचपन से ख्वाइश होती है कि वह एक ऐसी घड़ी बनाएगा, जो बिना रुके हमेशा चल सकेगी | जिस कारण वह बदहाली की हालत में होते हुए भी जीतोड़ मेहनत करने के लिए हमेशा तैयार रहता है | ‘हानूश’ नाटक में हम एक कलाकार के जुनून और लगन को देख सकते है | हानूश अपने जीवन की विषम परिस्थितियों से संघर्ष करता हुआ अपनी जवानी के सत्रह-अठ्ठारह वर्ष चेकोस्लोवाकिया की पहली मीनार घड़ी बनाने में लगा दिया| इस प्रकार अंत में जब वह कलाकार अपने सृजन में सफल हुआ और घड़ी नगरपालिका के मीनार पर लगाईं गई तो बादशाह सलामत आकर देश का गौरव बढ़ाने वाले गरीब कलाकार हानूश को सम्मानित और पुरस्कृत किया तो दूसरी ओर उसकी दोनों आँखों निकलने का भी हुक्म दे दिया | जिससे हानूश और घड़ियाँ न बना सके
भीष्म साहनी ने स्वयं लिखा है कि जब वह चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग गए तो उनके मित्र निर्मल वर्मा ने उन्हें हानूश की वह मीनार घड़ी दिखाई| जिसके बारे में वहां तरह-तरह की कहानियां प्रचलित थी | हानूश ऐसे ही यथार्थ और कल्पना के संयोग की उपज है | नाटक की कथा आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि मध्यकाल में थी | ‘हानूश’ नाटक में “लेखक का उद्देश्य घड़ी की विलक्षणता, उसके आविष्कार की लम्बी कहानी बताना भी नहीं है, जैसा कि स्थूल दृष्टि से देखने पर लगेगा | इसके विपरीत नाटक सूक्ष्म-स्तर पर मानवीय स्थिति, मानवीय नियति को प्रस्तुत करता है | ताला बनाने वाले सामान्य मिस्त्री, ‘हानूश’ के माध्यम से एक कलाकार की सृजनेच्छा शक्ति और संकल्प की तीव्रता को पूरी संवेदनशीलता से तीन अंकों में प्रस्तुत किया गया है |”1
पहला अंक– नाटक का प्रथम अंक हानूश, हानूश की पत्नी कात्या और बड़े भाई पादरी के आपसी संवादों से शुरू होता है | आर्थिक संकट से ग्रस्त होने के कारण हानूश के परिवार में काफी तनाव पूर्ण माहौल होता है| आर्थिक तंगी की वजह से कात्या, हानूश पर झल्लाकर कहती है- “जो आदमी अपने परिवार का पेट नहीं पाल सकता, उसकी इज्जत कौन औरत करेगी ?”2 हानूश का यह कहना सही है कि गरीबी और आर्थिक तंगी स्थायी नहीं होती लेकिन यह क्रूर सत्य है जिसे अनदेखा करके भी जीवन जिया नहीं जा सकता | ठीक ही कहा गया है – ‘MONEY IS CURSE OF PROBLEMS, MONEY IS SOLUTION OF PROBLEMS’ अर्थात-धन समस्या की वजह है तो समस्या का निदान भी है|
दूसरे अंक में कलाकार की सृजन-शक्ति और कला-चेतना को उजागर किया गया है और साथ-ही-साथ सत्ता द्वारा अपनी सत्ता-शक्ति को कायम बनाए रखने के लिए एक कलाकार की किस हद तक अवहेलना कर सकता है उसको भी चित्रित किया गया है | नगरपालिका हानूश को घड़ी बनाने के लिए वजीफा देती है, जिस कारण वह उस पर अपना हक़ चाहती है | गिरजेवाले धर्म के नाम पर घड़ी पर अपना हक़ चाहते हैं | यह पर नाटककार ने व्यावसायिक सत्ता और धार्मिक सत्ता द्वारा परस्पर होने वाले आम आदमी के शोषण को उजागर किया है | इसी अंक के दूसरे दृश्य में हानूश के बेटी यान्का और हानूश का सहायक जेकब के बीच पनपते प्रेम सम्बन्ध को भी उभारा गया है | दिन प्रतिदिन घड़ी की सफलता के साथ-साथ हानूश और कात्या (पति-पत्नी) के बीच मधुर संबंधों को भी रेखांकित किया गया है |
तीसरे अंक में कलाकार की आतंरिक पीड़ा को उभारा गया है | हानूश की घड़ी बनाने की प्रतिभा को जानकार राजा बहुत खुश होता है| हानूश को पुरस्कार से नवाजता है और घड़ी की देख-रेख का जिम्मा भी उसे ही सौपता है | लेकिन साथ ही साथ दूबारा हानूश को घड़ी बनाने की इजाजत नहीं है इसलिए उसे उसकी आँखों से महरूम कर दिया जाता है | नाटककार की नाटक के माध्यम से सत्ता की अंधी नीति, उसके शासन व्यवस्था पर सहज व्यंग्य मानवीय संवेदना की सहज अभिव्यक्त है | कलाकार की मौत कभी नहीं होती है वह अपने सृजन के माध्यम से हमेशा जीवित रहता है | नाटक के अंत में हानूश का यह महसूस करना की अब घड़ी कभी नहीं बंद होगीअर्थात उसका भेद जानने वाला उसका सहयोगी जेकब शहर से बाहर जा चुका है | “हानूश के द्वंद्व, अनुभव और भावात्मक स्पर्श की ऐन्द्रिक अनुभूति के स्तर पर पाठक के मर्म को गहराई तक कचोटता है | अत्यंत कारुणिक और मार्मिक | अंत में, हानूश का यह कथन नाटक के लक्ष्य को सामने लाता है –“घड़ी बन सकती है, घड़ी बंद भी हो सकती है | घड़ी बनानेवाला अंधा भी हो सकता है, मर भी सकता है लेकिन यह बहुत बड़ी बात नहीं है | जेकब चला गया, ताकि घड़ी का भेद जिन्दा रह सके, यही सबसे बड़ी बात है |”3
हानूश का परिवेश मध्ययुगीन है | जहाँ पर राजा का शासन है और उसकी सबसे बड़ी चिंता है राजा के शक्ति का संरक्षण | राजा और नगरपालिका के आपसी राजनीति के बीच अपनी–अपनी शक्ति को कायम रखने के चक्कर में पिसा आम आदमी-हानूश | जैसाकि वर्तमान में भी राजनीति और राजनेताओं की आपसी कलह का शिकार आम आदमी ही होता है | वह चाहे जिस भी रूप में हो | अँधा होने के बाद हानूश काफी अंतर्द्वंद्व में जीता रहा | वह कभी अपनी सत्तरह साल की मेहनत से बनी घड़ी को तोड़ देना चाहता है तो कभी अपने आपको ही समाप्त कर देना चाहता है | इसी जद्दोजहद के बीच वह अपनी जिंदगी को अधियारों में व्यतीत करता है| अपने आपको समाप्त करने की भी कोशिश करता है | लेकिन सफल नहीं हो पाता | तभी अचानक घड़ी बंद हो जाती है | घड़ी की टिक-टिक की आवाज न सुनने पर वह परेशान हो जाता है | उसको देखकर ऐसा लगता है कि अब तक वह घड़ी की टिक-टिक से ही जिन्दा था | तमाम तरह से अपने जद्दोजहद के बीच जीवन जीता हुआ हानूश घड़ी को न चाहते हुए भी ठीक करता है| उसे यह जानकर बहुत ख़ुशी होती है कि उसका सहयोगी जेकब शहर से दूर जा चुका है जिसके माध्यम से घड़ी का भेद खुल सकेगा और वह इस तरह हमेशा के लिए जीवित भी रहेगा | हानूश अब निश्चिंत हो जाता है कि अब यह घड़ी कभी बंद नहीं होगी और उसका राज सबको मालूम हो सकेगा |
‘हानूश’ नाटक ‘सृजनात्मकता का संकट’ विषय पर केन्द्रित है | सृजनात्मकता का प्रश्न किसी भी कलाकार की सृजन शक्ति या उसकी निजी मौलिक प्रतिभा से सम्बंधित है | वह चाहे चित्रकार हो या कवि-लेखक या वैज्ञानिक हो | यही हुनर किसी भी कलाकार या वैज्ञानिक को समाज के अन्य व्यक्तियों से उसे अलग और अनोखा बनाता है | जैसे रंजीत देसाई के उपन्यास ‘राजा रवि वर्मा’ पर आधारित फिल्म ‘रंगरासियाँ’ के नायक राजा रविवर्मा का चित्रकारी (पेंटिंग) के क्षेत्र में अनोखा योगदान रहा है | जिसने सबसे पहले देवी-देवताओं की चित्रकारी की | नाटककार ‘मोहन राकेश’ के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास की सृजन शक्ति और स्वयं के संघर्ष पर ‘सृजनात्मकता का संकट’ का सहज चित्रण मोहन राकेश के यहाँ मिलता है | इसी प्रकार सच्ची घटना पर आधारित फिल्म ‘एक डाक्टर की मौत’ में नायक डॉ. दीपांकर राय का शोधकार्य के प्रति जुनून, लगन उन्हें चैन से जीने नहीं देता | शोध पर शोध करते हुए, करीब दस साल कुष्ठरोग के टीका की खोज में बिना किसी ऊब के अपनी जिंदगी को समर्पित करके ख़ुशी महसूस करते हैं| लेकिन दुःख की बात यह है कि हमारा समाज और क़ानून पूरी तरह से डॉ. दीपांकर राय के इतने बड़े शोधकार्य को मजाक बनाने और डॉ. दीपांकर राय की प्रतिभा को उनके शोध कार्य को उनकी छोटी सी लैब में ही समाप्त करने की राजनीति शुरू कर देता है| हानूश की तरह डॉ. दीपांकर राय से भी जवाब माँगा जाता है कि उसने किसकी अनुमति से यह शोधकार्य किया है | अपने ही लोग न मध्यकाल में कलाकार की प्रतिभा (उसके टैलेंट) को समझ पाये थे और न ही आज समझना चाहते हैं | बस अपनी शक्ति को बनाए रखने के लिए हानूश और डॉ. दीपांकर जैसी उभरने वाली न जाने कितनी प्रतिभाओं और उसके रिसर्च को यूं ही बिना किसी वजह के समाप्त कर दिया जाता है | मध्यकाल में भी हमें बहुत से उदाहरण मिल जायेंगे जब राजतंत्र में कलाकार की कलाकारी पर केवल राजा का अधिकार था | राजा अपने अनुसार अपनी शक्ति और शान को बनाए रखने के लिए कलाकार की प्रतिभा को सम्मानित करने के बजाय उसे समाप्त करने की वह पूरी कोशिश करता है| कलाकार की कला, उसकी सृजन शक्ति पर अपना अधिकार चाहता है | जिससे समाज में उसका वर्चस्व हमेशा बना रहे | जैसा कि शाहजहाँ ने बेगम मुमताज की याद में सुन्दर इमारत ‘ताजमहल’ बनाने वाले कारीगर का हाथ कटवा दिया था | जिससे वह मिस्त्री ताजमहल जैसी दूसरी कोई इमारत न बना सके | ऐसी स्थिति में शक्ति का प्रतीक राजा प्रजा स्वरूप कलाकार के जीवनयापन का पूरा इंतजाम करके वह अपने आपको महान जरूर समझता है, लेकिन एक कलाकार की कारीगरी, उसकी अपनी प्रतिभा, उसका अपना हुनर जिससे उसे अपनी जिंदगी में अपार ख़ुशी और सुकून मिलता है | जिस प्रतिभा और संघर्ष की उसे सराहना मिलनी चाहिए थी उसी प्रतिभा (टैलेंट) और संघर्ष का वह शिकार होकर सदा के लिए अपाहिज हो जाता है | हानूश के साथ भी यही होता है | चित्रकार रविवर्मा जैसा कि फिल्म में दिखाया गया है वह भी समाज में फैली रूढ़िवादी परम्परा और संस्कृति के साथ-साथ गन्दी राजनीति फैलाने वालों के हाथों का पुतला बन कर रह जाता है | फिल्म ‘एक डॉक्टर की मौत’ में फिल्म का नायक डॉ. दीपांकर राय कुष्ठरोग के टीके की खोज में अपनी पूरी जिंदगी गवाने के बाद जब वह सफर होता है तो देश के राजनीतिक संगठनों के बीच फंसकर मौत के करीब पहुँच जाता| उसका अपना रिसर्च गन्दी राजनीति के हाथों बिक जाता है | और वह असहाय की तरह देखता रह जाता है | इस प्रकार उसकी वर्षों की मेहनत पर किसी और का अधिकार हो जाता है और वह हाथ मलकर रह जाता है | लेकिन वह हानूश की तरह हिम्मत नहीं हारता हमेशा अपने काम के प्रति आशावान बना रहता है | डॉ. दीपांकर राय सामाजिक, राजनीतिक, गतिविधियों से परेशान होकर कहता है कि-ये लोग किस पर छूड़ी चलाएंगे मुझ पर, साइंस पर तो नहीं चला सकते | एक वैज्ञानिक मरेगा तो उसकी जगह पर दूसरा वैज्ञानिक रिसर्च करेगा | उसी तरह हानूश भी राजसत्ता, समाजसत्ता और धार्मिक सत्ता की गतिविधियों से परेशान होता है और उसकी आँखें भी निकलवा ली जाती है जिससे वह दूसरी घड़ी न बना सके | लेकिन एक कलाकार के लिए उसका आशावान बने रहना ही उसमें ऊर्जा का संचार करता है | हानूश तमाम तरह के अंतर्द्वंद्व को झेलता हुआ तब पूरी तरह से सुकून महसूस करता है जब उसे पता चलता है कि घड़ी का भेद जानने वाला उसका सहयोगी जेकब शहर से बाहर जा चुका है| अब उसकी इतने दिनों की मेहनत सफल हो गई |
नाटक में पात्रों के माध्यम से जीवन की सच्चाई, मानवीय संवेदना और जीवन जीने की कला के साथ-साथ मानव जीवन में चीजों के महत्त्व के बारे में बहुत ही सूक्ष्मता से बताया गया है | इतना ही नहीं राजतंत्र की मानवीय संवेदनहीनता को भी उजागर किया गया है | प्रजापालक राजा भी अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए मानवीय संवेदना को कुचलने से बाज नहीं आता है | नाटक में पात्रों के माध्यम से नाटककार जीवन के मूल्यों और मानवीय संवेदनाओं के साथ-साथ रूढ़िवादी मान्यताओं पर व्यंग्य करने से भी नहीं चूकता है| एक प्रसंग आता है जब हानूश का बड़ा भाई पादरी कात्या को पैसे की अहमियत और उसका जीवन में कहाँ तक और कितना महत्त्व है | इस बात को समझाते हुए कहता है कि- जीवन में ख़ुशी, सुकून पैसे से नहीं ख़रीदा जा सकता है | पादरी का कथन – “पैसे वाले कौन से सुखी हैं, कात्या? अगर पैसे से ही सुख मिलता हो तो राजा–महाराजों जैसा सुखी ही दुनिया में कोई नहीं हो |”4 इसी प्रकार पादरी स्वयं से जीवन के रहस्यों के बारे में प्रश्न करता है कि- इंसान की जिंदगी का मकसद क्या है और क्या होना चाहिए? वह इस प्रश्न को लेकर परेशान रहता है| और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि किसी चीज के प्रति व्यक्ति के ‘मन में स्थिरता होनी चाहिए |’ हानूश मन की स्थिरता के प्रश्न पर व्यंग्य करता हुआ कहता है कि- “आप स्थिरता चाहते हैं | पर स्थिरता तो भाई साहिब, पोखर के पानी में ही होती है, और कहीं तो मैंने स्थिरता नहीं देखी |5  इसी प्रकार हानूश का परिवार की आवश्कताओं पर ध्यान न देना और परिवार के प्रति उसकी लापरवाही की वजह से कात्या उसे स्वार्थी कहती है | जिसे केवल अपनी घड़ी से मतलब है | कात्या कहती है कि- “तुम परले दर्जे के स्वार्थी हो | तुम्हें सारा वक्त अपने काम से मतलब रहता है- हम जिएँ–मरे, तुम्हारी बला से |6 यही धारणा मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास के बारे में अम्बिका रखती है कि कलाकार स्वार्थी होता है | ऐसी ही सोच हम फिल्म ‘रंगरसिया’ और ‘एक डॉक्टर की मौत’ में भी देख सकते हैं | एक कलाकार अपनी कला और सृजन के प्रति इतना डूब जाता है कि उसे स्वयं की भी परवाह नहीं होती | कलाकार का यही जूनून उसे समाज के अन्य व्यक्तियों से अलग कर और अपनी कला के प्रति समर्पण पैदा करता है| हानूश का जुनून भी ऐसा ही था जिसकी तरफ इशारा करके कात्या उसे स्वार्थी व्यक्ति की संज्ञा देती है | जबकि सही यह है कि कलाकार स्वार्थी नहीं होता कला का नशा उसे कुछ और देख पाने या कर पाने की तरफ ध्यान देने नहीं देता | कोई भी कलाकार अपने काम के प्रति समर्पित भाव से अपना सबकुछ देकर ही महान बन पाता है | किसी भी कलाकार की निगाह अपने लोगों तक सीमित न होकर सम्पूर्ण विश्व के स्वप्न को लिए आगे बढ़ती है | लेकिन अपनों से वह कभी अलग नहीं होता है क्योंकि अपनों के सहयोग के बिना वह कुछ नहीं होता | यह बात कुफ्लसाज हानूश, चित्रकार रवि वर्मा, लेखक कालिदास और डॉ. दीपांकर राय भी सभी स्वीकारते हैं कि-‘ये सब तुम्हारी वजह से है, तुम्हारे सहयोग के बिना कुछ सम्भव नहीं था |’ कात्या को जब हानूश की प्रतिभा और उसके संघर्ष का एहसास होता है, तब वह कला के मर्म और उसके काम की महत्ता को समझ पाती है| फिर वह कहती है- “अब तुम आजाद हो | अपने वजीफे का इंतजाम करो और घड़ी बनाओ | मैं तुमसे कभी कुछ नहीं कहूँगी|”7 कला के मर्म और कलाकार की प्रतिभा का भान होने पर कात्या की तरह ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक की नायिका अम्बिका भी कालिदास को उज्जैन राजा के संरक्षण में जाने से नहीं रोकती है | क्योंकि वह कलाकार की कला से प्रेम करती है | उसी तरह फिल्म ‘रंगरसिया’ की नायिका भी कला के अमरत्व के महत्त्व को समझते हुए चित्रकार रवि वर्मा की सहयोगिनी बनती है | जिसके लिए वह अपना सब कुछ समर्पित कर देती है | ‘एक डॉक्टर की मौत’ में भी रिसर्च के दौरान नायक डॉ. दीपांकर राय की पत्नी उनसे चिढ़ती जरूर है लेकिन एक समय के बाद वह डॉक्टर के कठिन परिश्रम और संघर्ष को समझ पाती है | जब उसे डॉक्टर की प्रतिभा का भान होता है, तब वह शोधकार्य को महत्त्व देती हुई नायक की सहयोगिनी के रूप में सामने आती है
किसी भी तरह की सृजनात्मकता किसी के आदेश की मुहताज नहीं होती और न ही कोई किसी से कहकर सृजनशीलता के प्रति उसकी बेचैनी और सहज सृजन शक्ति को पैदा ही किया जा सकता है | हानूश से महाराज का यह कथन की हानूश ने घड़ी बनाने के लिए उनकी इजाजत क्यों नहीं ली | किसी कलाकार से यह बहुत ही बेतुका प्रश्न है | सृजनशीलता सहज एहसास की सहज कृति होती है| इसे किसी शासन सत्ता के द्वारा या किसी सत्ता की कैद में इसे उत्पन्न नहीं किया जा सकता | हानूश की घड़ी बनाने की अपनी सृजन शक्ति, उसका अपना जुनून था, जिसके लिए वह समर्पित भाव से अभावहीन स्थिति में भी विचलित नहीं होता है | जिस कारण वह एक दिन घड़ी बनाने में सफलता होता है|
‘हानूश’ नाटक का कथानक सामंतीयुग के विघटन और पूंजीवाद के आगमन का संकेत करता है | नाटक के माध्यम के यह दिखाने की कोशिश की गई है कि अब वह समय नहीं रहा जब सभी चीजों पर केवल राजतंत्र का शासन होता था| राजा जैसे चाहे किसी के विकास की गति को मोड़ सकता था, जब चाहे, जो चाहे कर सकता था| सभी चीजों पर अपना आधिपत्य कायम कर सकता था| नाटक के माध्यम से भीष्म साहनी जी यहीं बताने की कोशिश करते है की हानूश को अंधा बना देने से विकास की गति रूक नहीं सकती है | यहाँ पर कलाकार सामंतवाद और पूँजीवाद दोनों से परेशान है फिर भी वह अपने काम को बंद नहीं करता है क्योकिं उसे आशा है कि आने वाला कल उसका अपना है |
राजसत्ता, समाजसत्ता और धार्मिक सत्ता के बीच जूझता कलाकार और उसकी सृजनात्मकता का संकट वास्तव में बहुत ही असहनीय है, जिसकी तरफ भीष्म साहनी संकेत करते हैं | घड़ी बनाने में राज्य की दो संस्थाओं ने कुछ आर्थिक मदद की थी, जिसमें गिरजाघर और नगरपालिका शामिल हैं | ऐसा करने के पीछे दोनों का अपना-अपना स्वार्थ था | स्वार्थसिद्ध की प्राप्ति से हमेशा मानवीय संवेदनाओं का हनन होता है | जिसकी वजह से दोनों अपनी–अपनी स्वार्थसिद्ध की पूर्ति के लिए यह चाहते थे कि घड़ी हमारे यहाँ लगे | नगरपालिका के लोग व्यापारी पूंजीपति लोग थे जो घड़ी से अपना फायदा कमाना चाहते थे अर्थात व्यापार करना चाहते थे तो दूसरी तरफ गिरजाघर के लोग घड़ी को अपने यहाँ तो लगवाना चाहते थे लेकिन वे घड़ी के आविष्कार से खुश नही थे | क्योंकि उनके लिए घड़ी का निर्माण ईश्वरीय शक्ति का उलंघन था | कलाकार हानूश की घड़ी पर राजसत्ता, समाजसत्ता और धार्मिक सत्ता के बीच घड़ी पर अपना-अपना अधिकार दिखाते हुए उनके बीच होने वाली बातचीत एक झलक इस प्रकार है-
“जान – सुनो | सब बात सोच-समझ लो | नगरपालिका ने जो वजीफा हानूश को दिया है, वह घड़ी बनाने के लिए दिया गया था | इसका मतलब यह नहीं कि घड़ी पर नगरपालिका का हक़ हो जाता है | इस बारे में हानूश के साथ कोई मुआइदा तो नहीं हुआ था कि घड़ी नगरपालिका पर लगाई जाएगी |
शेवचेक- जो पैसा देता है, चीज उसी की होती है, यह तो व्यापार की बात है |
जान- यह तो तुम अब कह रहे हो न ! क्या उस वक्त कोई मुआइदा हुआ था ? उस वक्त तो केवल एक गरीब कुफ्लसाज की मदद की जा रही थी |
जार्ज- फिर घड़ी किसकी है ?
जान- मैं कहूंगा, जिसने घड़ी बनाई है, घड़ी उसी की है | घड़ी हानूश की है |
हुसाक- नहीं, राज्य की हर चीज पर हक़ बादशाह का होता है | इसलिए घड़ी कहा लगेगीइसका फैसला न हानूश कर सकता है, न लाट पादरीन हम लोग | इसका फैसला बादशाह सलामत ही कर सकते हैं |”8
नाटक के तीसरे अंक में सृजनशीलता के प्रश्न और राजसत्ता का आमजन पर होने वाले अत्याचार को सहजता से स्वीकार करती हुई कात्या कहती है कि-हम गरीब लोग बादशाहों से टक्कर नहीं ले सकते हैं | हमारी बिसात ही क्या है ? हानूश का मित्र एमिल कात्या को समझाते हुए कहता है कि- ऐसा नहीं है “जो लोग कोई नया काम करेंगे, उन्हें तरह-तरह की जोखिमें तो उठानी ही पड़ेंगी| यही बात  फिल्म ‘एक डॉक्टर की मौत’ में डॉ. दीपांकर को समझाते हुए पत्रकार अमूल्य भी कहता है | आगे एमिल कात्या को समझाते हुए कहता है कि- हानूश को अंधा ही इसलिए किया गया कि महाराज सौदागरों और गिरजेवालों के बीच अपनी ताकत को बनाए रखें |”9
नाटक की भाषा बहुत ही प्रवाहपूर्ण है जो नाटक की नाटकीयता को सफल बनाने में सहायक है | नाटक की भाषा के सम्बन्ध में डॉ. गिरीश का यह कथन बिलकुल सही है कि- “हानूश की मानसिक यातना, द्वंद्व, सृजनशीलता, संवेदनशीलता, तन्मयता, तल्लीनता, करुणा, पीड़ा आदि मनोभावों को भी उन्होंने सहज भाषा में बड़ी ऊष्मा आतंरिक छुअन के साथ अभिव्यक्ति दी है | घड़ी के नाजुक पुर्जों को छूने की, उसकी कोमलता और आकुलता के अनुरूप ही भाषा और संवादों का अत्यंत नाजुक गठन है |”10    

इस प्रकार हम देखते हैं कि अंधा होने के बाद हानूश तमाम तरह की सुख सुविधा के बीच रहते हुए भी वह अपनी जिंदगी में सुकून भरा एक पल भी महसूस नहीं कर पाता है | नाटक के माध्यम से भीष्म साहनी सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों पर तीखी टिप्पणी करते हैं | हानूश मानवीय संवेदना की खोज और उसके संरक्षण के लिए प्रयासरत दिखाई देता है | यह कहना गलत नहीं होगा कि भीष्म साहनी के रचना कर्म का मुख्य बिंदु ही मानवीय संवेदना की उसकी मनुष्यता की खोज करना है | भीष्म साहनी एक गरीब आम आदमी की सृजनशीलता को उभारते हुए यह बताने की कोशिश करते हैं कि किस प्रकार एक आम आदमी अपनी संघर्षशीलता के चलते कठिन मेहनत के बल पर सृजनशीलता का धनी होता है लेकिन समाज में व्याप्त राजसत्ता, समाजसत्ता और धार्मिक सत्ता तीनों मिलकर आर्थिक तंगी के कारण विवश कलाकार हानूश की रचनाशीलता पर अपना–अपना हक़ दिखाते हुए उसकी रचनात्मकता का हनन करते हैं | समाज में ऐसी कितनी प्रतिभाएं होगी जो आर्थिक तंगी की वजह से उभर नहीं पाती हैं| हानूश अपनी स्थितियों से विचलित जरूर हुआ | लेकिन घर-बाहर की बहुत सी गतिविधियों से संघर्ष करता हुआ वह आगे बढ़ता रहा और सफल भी हुआ | उसे सफलता की ख़ुशी से ज्यादा निराशा हाथ लगी | फिर भी वह अपनी जिंदगी की जद्दोजहद से संघर्ष करता हुआ भविष्य के लिए हमेशा आशावान बना रहा | जिस वजह से वह अपने सृजन कार्य में अंतत: सफल भी हुआ |



सन्दर्भ-सूची:
हानूश –                        भीष्मसाहनी राजकमल प्रकाशन – संस्करण चौथा 2010
डॉ गिरीश रस्तोगी -               समकालीन हिंदी नाटक की संघर्ष चेतना,
हरियाणा साहित्य अकादमी चंडीगढ़,प्रथमसंस्करण -1990
(1) पृष्ठ सं.110
हानूश –                        भीष्म साहनी राजकमल प्रकाशन – संस्करण चौथा 2010
 (2)पृष्ठ सं.11
 (3)पृष्ठ सं.140
 (4) पृष्ठ सं.15
 (5) पृष्ठ सं.27
 (6)पृष्ठ सं.43
 (7)पृष्ठ सं.53-54
 (8)पृष्ठ सं.53-54
 (9)पृष्ठ सं.104
डॉ गिरीश रस्तोगी-                      समकालीन हिंदी नाटक की संघर्ष चेतना
 (10)पृष्ठ सं.115
जयदेव तनेजा-                               नई-रंग चेतना और हिंदी नाटककार
तक्षशिला प्रकाशन -110002
इन्द्रनाथ मदान-                              हिंदी नाटक और रंगमंच, लिपि प्रकाशन
दिल्ली-110059
मोहन राकेश -                        आषाढ़ का एक दिन, राजपाल एण्ड सन्ज
प्रकाशन -110006
फिल्म सन्दर्भ-
(अ) रंगरसिया
(ब) एक डॉक्टर की मौत   




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